
Jallianwala Bagh Massacre: 13 अप्रैल 1919 का वह दिन, जो इतिहास के पन्नों में काला दिन के तौर पर दर्ज है। इस घटना के एक शताब्दी से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी उसे याद करके भारतीयों की रूह कांप जाती है। अमृतसर के जलियांवाला बाग में उस दिन खून की होली खेली गई थी। बावजूद इसके कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ब्रिटिश हुकूमत का महिमामंडन करने में लगे हुए थे।
उस दिन अमृतसर ले जालियांवाला बाग़ में अंग्रेजो के काले कानून रोलेट एक्ट और अमृतसर के दो नेताओं डॉ. सतपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू की गिरफ़्तारी के विरोध में एक जनसभा आयोजित की गई थी। इस सभा में हजारों लोग इकठ्ठा हुए थे। इस सभा में कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी भाषण देने वाले थे। जब ब्रिटिश हुकुमत ने इतने लोगों की भीड़ देखी, तो वे क्रोधित हो गए। वे किसी भी हाल में भारतीयों की इस आवाज़ को दबाना चाहते थे। जिसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते थे। लिहाजा, उन्होंने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी।
जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर नाम के अंग्रेज अधिकारी ने बिना चेतावनी दिए उस सभा में मौजूद 5 हजार से ज्यादा लोगों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया। देखते ही देखते सभा स्थल लाशों के ढेर में बदल गया। चारों और खून की नदियां बहने लगी। गोलियों का निशाना बनने वालों में जवान, बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी थे। जनरल डायर की गोलियों का शिकार वे लोग भी बने, जो केवल जलियांवाला बाग में मेला देखने आए थे। गोलियां चलते वहां अफरा-तफरी मच गई। लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। इस दौरान फायरिंग और भगदड़ में भी सैकड़ों लोग मारे गए।
जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे खाली मैदान था और वहां तक जाने अथवा बाहर निकलने के लिए सिर्फ एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे भागने का कोई रास्ता नहीं था। इसलिए फायरिंग के समय कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद कुएं में कूद गए। लेकिन अधिकतर लोगों का ऐसा करने से कुआं देखते ही देखते लाशों से भर गया। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो अंदर दम घुटने के कारण मर गए।

उस समय अमृतसर में कर्फ्यू लगा हुआ था, इसलिए घायलों को कहीं इलाज के लिए ले जाया नहीं जा सकता था। लोगों ने वही तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया। ब्रिटिश सरकार के अनुसार, जलियांवाला बाग के इस नरसंहार में 379 लोग मारे गए थे और 1200 घायल हुए थे। लेकिन पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियांवाला बाग का जब दौरा किया, उन्होंने मरने वालों की संख्या 1000 से ऊपर बताई थी। जनरल डायर के आदेश पर हजारों लोगों की जान पल भर में ले ली गई। जगह-जगह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नारे लग रहे थे, अंग्रेजों का जगह-जगह विरोध हो रहा था, देश का खून खौल रहा था… लेकिन ऐसे समय में भी कांग्रेस के बड़े नेता मोतीलाल नेहरू ब्रिटिश हुकूमत की तारीफ करने में जुटे हुए थे।
कांग्रेस का 34 वां अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था। पहले दिन यानी 27 दिसंबर 1919 को मोतीलाल नेहरू ने अपने अध्यक्षीय भाषण में ब्रिटिश शासन की शान में कसीदे पढ़े। उस दौरान जॉर्ज फ्रेडरिक (V) यूनाइटेड किंगडम के राजा और भारत के सम्राट कहे जाते थे। उनके उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत द्वारा प्रस्तावित था। इस अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की। मोतीलाल नेहरू ने ब्रिटिश शासन की उदारता और अपनी निष्ठा का भी जिक्र किया। यानी जलियांवाला बाग के अभी 1 साल भी पूरे नहीं हुए थे और मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के बड़े नेताओं का अंग्रेजों के प्रति पूरी तरह से हृदय परिवर्तन हो चुका था। जैसे इतनी बड़ी नरसंहार की घटना कोई मामूली घटना हो।
जब मोतीलाल नेहरु ने ब्रिटिश हुकुमत की शान में पढ़े कसीदे
कांग्रेस शुरू से ही इस हत्याकांड का विरोध नहीं कर रही थी। क्रूरता की सारी हदें पार करने वाले जनरल डायर की ब्रिटिश पार्लियामेंट भी तारीफ कर रही थी और दूसरी ओर मोतीलाल नेहरू अंग्रेजों का विरोध करने के बजाय उनके शान में कसीदे पढ़ रहे थे।
ब्रिटिश शासन की मोतीलाल नेहरू तारीफ कर रहे थे। वहां की ब्रिटिश संसद जनरल डायर का गुणगान कर रही थी। पार्लियामेंट ऑफ यूनाइटेड किंगडम 19 जुलाई 1920 को एक प्रस्ताव में कहा गया, ‘जनरल डायर बहुत क्षमता वाले अधिकारी हैं, उससे भी ज्यादा उन्होंने कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया है।’ ब्रिटेन का यह नजरिया क्रूरता फासीवाद और तानाशाही का एक उदाहरण था। इससे भी खतरनाक और शर्मनाक था कांग्रेस का ब्रिटिश पार्लियामेंट के इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं देना, विरोध करना तो बहुत दूर की बात है…

ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इंक्वायरी की कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट के मुताबिक नरसंहार के दिन 5000 से ज्यादा लोग मौजूद थे। जनरल डायर के साथ 90 लोगों की फ़ौज थी जिसमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुर्की (यानी छोटी तलवार) थी। डायर ने लिखित में बताया था कि जितनी भी गोलियां चलाई गई थी, अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक हुई होती। जनरल डायरिया यह तय करके आया था कि अगर उसके आदेश नहीं माने गए, तो वह गोलियां चला देगा और हुआ भी यही। बिना चेतावनी के लगातार 10 मिनट तक वह गोलियां बरसाता रहा।
जलियाँवाला बाग़ में मृतकों की संख्या
एक ब्रिटिश अधिकारी जेपी थॉमसन ने एचडी क्रैक को 10 अगस्त, 1919 को पत्र लिखा, ‘हम इस स्थिति में नहीं हैं जिसमें हम बता सकें कि वास्तविकता में जलियांवाला बाग में कितने लोग मारे गए। जनरल डायर ने मुझे एक दिन बताया कि यह संख्या 200 से 300 के बीच हो सकती है। उसने बताया कि उनके फ्रांस के अनुभव के आधार पर 6 राउंड शॉट से एक व्यक्ति को मारा जा सकता है। उस दिन कुल 1650 राउंड गोलियाँ चलाई गई। उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने डायर के अनुमान के आधार पर 291 लोगों के मारे जाने की पुष्टि कर दी। इसमें 186 हिन्दू, 39 मुस्लिम, 22 सिख और 44 अज्ञात बताए गए। इस प्रकार वहाँ मरने वालों की संख्या निर्धारित की गई। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)

डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी ने तो 379 लोगों की जान और इसके तीन गुना लोग घायल होने की बात कही। पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियाँवाला बाग का दौरा किया था। उन्होंने बताया कि मरने वालों की संख्या 1000 से ऊपर है। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)
इस नरसंहार पर कॉन्ग्रेस ने एक तरह से अंग्रेजों के सामने हथियार डाल दिए थे, विरोध तो दूर। कॉन्ग्रेस ब्रिटिश हुकूत की तारीफ में जुटी हुई थी। कसीदें पढ़ रही थी। दूसरी ओर इस क्रूरतम घटना पर कवींद्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार की नाइटहुड उपाधि वापस लौटा दी।
नरसंहार से तीन दिन पहले 10 अप्रैल 1919 को पंजाब में किसी भी समाचार के प्रसार पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ मार्शल लॉ लागू किया गया। नतीजा ये हुआ कि पंजाब शेष भारत से पूरी तरह कट गया। मार्शल लॉ और सेंसरशिप के कारण दुनिया को तुरंत इस जेनोसाइड का पता नहीं चल सका।
टैगोर को नहीं मिला गांधी का समर्थन
18 अप्रैल 1919 को महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के दमन के लिए अंग्रेजों के बजाय अपने देशवासियों को ही जिम्मेदार ठहराते हुए सत्याग्रह वापस ले लिया। इससे अंग्रेज और भी खुलेआम दमन और अपमान के लिए प्रेरित हुए। रवींद्रनाथ को नरसंहार की तत्काल जानकारी नहीं मिली। एक-दो दिन के भीतर महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन वापस लेने की खबर अखबार में छपी।
टैगोर ने गाँधी के नेतृत्व पर भरोसा जताया और शांतिनिकेतन से कोलकाता चले गए तथा वहाँ नरसंहार के खिलाफ एक विरोध सभा आयोजित करने की कोशिश की, लेकिन चित्तरंजन दास समेत किसी भी नेता का उन्हें समर्थन नहीं मिला। उन्होंने सीएफ एंड्रूज को गाँधी के पास यह अनुरोध करने के लिए भेजा। तब महात्मा गाँधी ने जवाब दिया कि वह सरकार को शर्मिंदा नहीं करना चाहते। इसके बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद नाइटहुड की उपाधि त्यागने का फैसला लिया और हाथ से लिखकर एक पत्र वायसराय को भेजा।

ये विरोध की अकेली आवाज थी, लेकिन उन्होंने देश के साथ-साथ बाहर के लोगों को भी अपने यादगार गीत ‘एकला चलो रे’ को सच साबित कर दिखाया।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1919 की अमृतसर कॉन्ग्रेस में रवींद्रनाथ के उस त्याग का कोई जिक्र नहीं हुआ, जबकि वायसराय काउंसिल से सीएस नायर के इस्तीफे की प्रशंसा की गई। यहाँ तक कि पट्टाभि सीतारमैया ने भी द हिस्ट्री ऑफ द इंडियन कॉन्ग्रेस में रवींद्रनाथ के इस साहसिक कृत्य का कोई जिक्र नहीं किया। रवींद्रनाथ का त्याग अनूठा था, उनमें लोकप्रिय होने की कोई इच्छा नहीं थी। गंभीर संकट के क्षणों में वह आम लोगों के साथ खड़े हुए।
वहीं अमर बलिदानी भगत सिंह घटनास्थल से रक्तरंजित मिट्टी उठा कर अपने घर ले गए और देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लिया। इस नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी ऊधम सिंह ने 21 वर्ष बाद 1940 में ब्रिटेन जाकर जनरल डायर को गोलियों से भून दिया। जो इतिहास हम सब जानते ही हैं। जलियाँवाला बाग नरसंहार के सभी बलिदानियों को शत-शत नमन।
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