“जब भीड़ सिस्टम पर हावी होती है, तब सरकारें निक्कमी हो जाती हैं” तस्वीरें बताती हैं, जब भीड़ तंत्र के आगे नतमस्तक हुई सरकार

कट्टरता एक फिसलन भरी ढलान है। अराजकता एक अंधकारमय स्थान है। यहाँ कानून और व्यवस्था का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कट्टरपंथी किस किताब से आदेश लेते हैं या अराजकतावादी किस टूलकिट का पालन करते हैं।

 

तस्वीरें शक्तिशाली होती हैं। ये मन-मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। तस्वीरें कहानियाँ बताती हैं। दुर्भाग्य से हमारे लिए ऐसी बहुत सी तस्वीरें हैं, जो किसी सरकार के कमजोर होने और भीड़ के सामने बेबस एवं लाचार होने की कहानी बयाँ कर सकती हैं। जब सरकार कमजोर होती है तो उस स्थान पर अराजकतावादी, कट्टरपंथी और शैतान कब्जा कर लेते हैं। अराजकता महामारी की तरह फैलती है। निराशा टिड्डियों की तरह पैदा होती है।

 

रामनवमी पर देश के 7 राज्यों के 12 शहरों में हिंसा हुई। शोभायात्रा निकाल रहे हिन्दुओं पर पत्थर बरसाए गए। इस घटना में कुछ लोगों की मौत भी हुई है। कहीं-कहीं पर हिंसा रोक रहे पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाया गया। कई जगहों पर एकतरफा (हिन्दुओं के खिलाफ) कार्रवाई की बात भी सामने आई है। इन सभी घटनाओं में एक बात सबमें कॉमन रही, सभी जगहों पर मस्जिदों के सामने ही हमले हुए।

 

आखिर हर बार ऐसा क्यों होता है कि हर बार गैर हिन्दुओं द्वारा हिन्दुओं पर ही हमले किये जाते हैं। हिन्दू ही इन कट्टरपंथी भावना का शिकार होते हैं। एकतरफा कार्रवाई करने वाले भूल जाते हैं कि ये हिंदुस्तान है, पाकिस्तान नहीं। जिस गंगा-जमुनी तहजीब को हम वर्षों से ढोते आ रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में वह तहजीब कई बार खंडित हुई है। या यूं कहें कि इनकी कथित गंगा-जमुनी तहजीब पहले भी कई बार खंडित हुई है, खबरें हम तक नहीं पहुंच पाती थीं। जम्मू कश्मीर, केरल और पश्चिम बंगाल में बीते कुछ वर्षों में जो घटनाएं हुई हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि जसी गंगा जमुनी तहजीब को हम वर्षों से अपने कंधे पर धो रहे हैं, हमारे कंधे अब उनका वजन नहीं संभाल पा रहे। इसका बोझ इतना ज्यादा हो गया है कि या तो हम इसे संभालें या फिर अपने कंधे।

 

लोकतंत्र में जनता की याददाश्त थोड़ी कमजोर होती है। ऐसा पहले भी सुना था। लेकिन इसी लोकतंत्र और कमजोर याददाश्त का फायदा उठाकर राज्य व केंद्र सरकार अपनी नाकामियां छिपा जाती हैं। और भीड़तंत्र के आगे नतमस्क हो जाती हैं।

 

ये भीड़तंत्र है। इससे डरना ज़रूरी है। आप शायद सोच रहे होंगे कि इतने बड़े लोकतांत्रिक देश में भीड़तंत्र कहां से आया? क्या भारत के संविधान में भीड़तंत्र को शामिल किया गया है? ऐसे कई सवाल हैं, जो बीते कुछ दिनों, कुछ महीनों की घटनाओं के विश्लेषण के बाद से जेहन में खड़े हो रहे हैं। आज हम आपको ऐसी ही कुछ घटनाओं के बारे में जिक्र करेंगे, कट्टरपंथीयों के कथित गंगा-जमुनी तहजीब ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

 

जून 2022 में कर्नाटक के बेलगावी में ऊँची तार से लटकी एक पुतले की तस्वीर आपने सोशल मीडिया पर देखी ही होगी। यदि देखी होगी, तो इसके बाद आपके भीतर इसके बाद खौफ भी हुआ होगा। यदि नहीं हुआ तो भी होना ज़रूरी है। क्योंकि हमारे यहां का सिस्टम ही ऐसा कहता है। पुतले को टांगने वालों ने इसपर नुपुर शर्मा की तस्वीर भी लगाई है। इस धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश में इनके उपर इनाम की घोषणा करके कहा गया कि उनका सिर काट देना चाहिए।

सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही तस्वीर को देखने के बाद आपको इसके असली और नकली होने में फर्क करना बड़ा मुश्किल लग रहा होगा। दुनिया में बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो एक महिला के साथ ऐसा करना चाहते हैं। एक अकेली महिला, जिसकी बातें उन्हें पसंद नहीं आई। जिस तरह से हमें सोचने और व्यवहार करने के लिए ढाला गया है उसके तहत हम कुछ सेकंड के लिए तस्वीर को देखते हैं और फिर हम खुद से ही कहते हैं, “नहीं, यह भारत है अफगानिस्तान या सीरिया नहीं। ऐसी चीजें यहाँ नहीं हो सकतीं”।

 

कहानी शुरू होती है, उदयपुर के कन्हैया लाल से, जब वर्षों से साथ रह रहे उनके मजहबी मित्र ने ही उनकी हत्या कराने का जिम्मा उठा लिया था। घटना इतनी निर्दयी थी कि इसके प्रति पूरे देश के हिन्दुओं में उबल था। बावजूद इसके देश की सबसे बड़ी पार्टी और हिन्दू शिरोमणि पार्टी के मुखिया ने इसके प्रति किसी प्रकार की शोक संवेदना या एक ट्वीट करना उचित न समझा।

 

इसके बाद बात आती है भाजपा की पूर्व नेत्री नुपुर शर्मा से, जब नुपुर ने ज्ञानवापी सर्वे में मिले शिवलिंग का बार-बार मजाक बना रहे मौलवी को उसकी हकीकत से रूबरू कराया। इसके बाद तो जैसे देश-विदेश की राजनीति में तूफान सा मच गया। कई इस्लामिक देशों ने नुपुर शर्मा के बयान पर अपना विरोध जताना शुरू किया। विरोध का स्तर इतना बढ़ा कि भारत की सबसे बड़ी पार्टी कहे जाने वाली पार्टी को भी अपने प्रवक्ता को पार्टी से निष्काषित करना पड़ा। बात यहीं नहीं खत्म हुई। अब जबकि नुपुर शर्मा को ‘सिर तन से जुदा…’ जैसी धमकियां आ रहीं थी, पार्टी ने अपनी राजनीतिक छवि साफ-सुथरी बनाने के लिए अपना लेटर पैड वायरल कर दिया। जिसमें नुपुर शर्मा का पता स्पष्ट रूप से लिखा हुआ था।

सोशल मीडिया पर वायरल तस्वीर में कुछ सच्चाई है। हाँ, अफगानिस्तान में ऐसी चीजें आम हैं। साल 2021 में सत्ता हथियाने के कुछ ही समय बाद तालिबान ने शवों को क्रेन से लटकाना शुरू कर दिया। वे तस्वीरें भी इसी तरह डरावनी थीं। एक तस्वीर सामने आई थी, जिसमें तालिबान ने एक शव को हेलीकॉप्टर से लटका दिया था। वे पुतले नहीं थे, वाकई हत्या करने के बाद लोगों में एक संदेश भेजने के लिए उनके शव को फाँसी लगाकर तमाशा बनाया गया था।

 

अफगानिस्तान की जो तस्वीर आपको दिखाई दे रही है। यह कोई पुतला नहीं, बल्कि ये वास्तविक लोग हैं। अपहरण के आरोपियों को मारकर उनके शवों को जनता को देखने के लिए फांसी पर लटका दिया गया।

 

अब बात शुरू होती है, तो केवल और केवल नुपुर शर्मा पर आकर रुक जाती है। क्योंकि नुपुर के साथ जो हुआ वह गलत हुआ। नुपुर के खिलाफ पूरे भारत में एक विशेष धर्म के लोगों ने उपद्रव किया। ‘सर तन से जुदा’ और ‘रेप’ करने तक की धमकी दी। उपद्रवियों में कुछ लोगों ने कहा कि पहले नुपुर शर्मा का बलात्कार हो, फिर सिर कलम किया जाय। यह डरावना पुतला इसी इरादे की खुलेआम घोषणा है।

 

इसके बाद जम्मू के एक मस्जिद में मौलवी ने लाउडस्पीकर से आवाज़ लगाई कि नुपुर शर्मा का सिर कलम कर देना चाहिए। साथ ही मौलवी ने यह भी कहा कि गोमूत्र पीने वाले हिन्दू मुस्लिमों से बराबरी के योग्य नहीं हैं। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल और रांची में भी उपद्रवी नुपुर शर्मा के विरोध में खड़े हुए। मौलाना उलेमाओं और नेताओं ने खुले तौर पर घोषणा किया कि नुपुर शर्मा जीने की हक़दार नहीं है।

 

इस मामले में शासन प्रशासन ने चुप्पी साध ली। हालांकि कानून-व्यवस्था तोड़ने के आरोप में यहाँ-वहाँ कुछ गिरफ्तारियाँ हुई और धार्मिक नफरत फैलाने के आरोप में कुछ एफआईआर भी दर्ज हुई, लेकिन क्या ये काफी हैं? अभी ज्यादा पीछे न जाएं तो क्या हमने पालघर के साधुओं का चेहरा भुला दिया? जिन बेगुनाह साधुओं की बुद्धिजीवियों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी। और जिसमें किसी भी तरह की कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई।

 

कल्पवृक्ष गिरि महाराज 70 वर्ष के थे। अपने कमजोर हाथों से को जोड़ते हुए एक पुलिस अधिकारी से बचाने की गुहार लगाई थी और अपने झुर्रीदार चेहरे के साथ इस उम्मीद में वे मुस्कुराए थे कि राज्य की शक्ति के रूप में कई वर्दीधारी पुलिस अधिकारी उनके सामने मौजूद हैं, जो खून की प्यासी भीड़ से उनकी रक्षा कर लेगी। लेकिन, वह कुछ कुछ ही सेकंड में गलत साबित हो गया। जब भीड़ उन्हें और उनके सहयोगी को पीट-पीट कर मार डाला और उनके शवों को भी नहीं छोड़ा तब भी पुलिस देख रही थी।

 

पालघर की घटना के 3 साल हो चुके हैं। इस घटना में सरकार असफल साबित हुई थी। सत्ताधारी दल के नेताओं ने कभी भी इस मामले में कुछ नहीं कहा। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को छोड़कर किसी भी प्रमुख नेता ने कभी उनका जिक्र नहीं किया और ना ही उन साधुओं के लिए शोक व दुख व्यक्त किया। कल्पवृक्ष गिरि महाराज यह विश्वास लिए हुए भीड़ के हाथों मारे गए कि सरकार उन्हें बचा लेगी।

 

लखबीर सिंह का क्या दोष था? जिसे किसान आन्दोलन कर दौरान मार कर लटका दिया गया। और जिसे आज भी इंसाफ नहीं मिला। लखबीर शायद इतना साक्षर या जागरूक नहीं था कि उसे विश्वास हो जाए कि उसे बचा लिया जाएगा। जबकि उसका खंडित शरीर उसके ही खून के कुंड में पड़ा था। उसकी आँखें सदमे से फैल गई थीं। वह इशारे से बोलने की कोशिश करता रहा। संभवत: वह बचाए जाने, मदद करने या कुछ पानी दिए जाने की याचना कर रहा था।

 

लखबीर के हमलावरों ने उसकी हत्या का तमाशा भी बना लिया था। उन्होंने निष्प्राण पड़े उसके शरीर के चारों ओर अपनी तलवारें लहराते हुए क्रूरता का नृत्य किया। उन्हें सरकार का कोई डर नहीं था। हेरात की अनाम लाशों की तरह ही लखबीर को पुलिस के बैरिकेड्स के मचान से बाँध दिया गया और सभी लोगों के देखने के लिए छोड़ दिया गया था।

हमलावरों ने लखबीर की मौत का तमाशा बना दिया था

 

आधुनिक तकनीक, देश चलाने के लिए जबरदस्त जनादेश, ताकतवर सुरक्षाबल और सूचनाएँ उपलब्ध होने के बावजूद सरकार पालघर में साधुओं की हत्या और किसान आंदोलन के दौरान सिंघु-कोंडली बॉर्डर पर लखबीर सिंह की निर्मम हत्या के मामले में राज्य की सत्ता विफल साबित हुई।

 

महीनों तक लोगों ने पीएम को मारने और काटने की धमकी दी, बलात्कार की घटनाएँ सामने आईं, यातायात रोक दिया गया और किसानों के विरोध के नाम पर पुलिसकर्मियों पर हमला किया गया और सरकार देखती रही। जब लाल किले में तिरंगा फहराया गया और पीला झंडा लगा दिया गया, तब भी सरकार देखती रही।

 

चूँकि सरकार का अपमान और दुर्बलता सभी को दिखाई दी थी और जब लाल किले की ऊँची दीवारों से दर्जनों पुलिस अधिकारियों को नीचे गिराया गया तब पूरी दुनिया इसे देख रही थी। सरकार ने अराजकतावादियों के सामने हार मान ली थी। जिस दिन गणतंत्र अपना संविधान मनाता है, उसी दिन लोकतंत्र के प्रतीकों को अशुद्ध कर दिया गया था।

 

तस्वीरें शक्तिशाली होती हैं। ये मन-मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। तस्वीरें कहानियाँ बताती हैं। दुर्भाग्य से हमारे लिए ऐसी बहुत सी तस्वीरें हैं, जो किसी सरकार के कमजोर होने और भीड़ के सामने बेबस एवं लाचार होने की कहानी बयाँ कर सकती हैं। जब सरकार कमजोर होती है तो उस स्थान पर अराजकतावादी, कट्टरपंथी और शैतान कब्जा कर लेते हैं। अराजकता महामारी की तरह फैलती है। निराशा टिड्डियों की तरह पैदा होती है।

 

कट्टरता एक फिसलन भरी ढलान है। अराजकता एक अंधकारमय स्थान है। यहाँ कानून और व्यवस्था का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कट्टरपंथी किस किताब से आदेश लेते हैं या अराजकतावादी किस टूलकिट का पालन करते हैं।

 

राज्य की शक्ति ही जनता को कट्टरता और अराजकता के खतरे से बचा सकती है। जब उस राज्य की शक्ति अराजकता को रोकने में विफल हो जाती है तो कट्टरता बढ़ जाती है। मानव पर भ्रष्टता हावी हो जाती है और मनुष्य शैतान बन जाते हैं। उसके बाद पुतलों को वास्तविक शरीर बनने में केवल कुछ ही समय लगता है।

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