प्रयागराज। मुगलों के पतन के बाद भारत पर ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, लेकिन कुंभ मेला अपनी परंपरा को निरंतर जारी रखने में सक्षम रहा। अंग्रेजों के लिए कुंभ केवल धार्मिक आयोजन नहीं था, बल्कि यह उनके लिए एक जिज्ञासा और चिंता का विषय भी बन गया। खासकर 1857 की क्रांति के बाद, ब्रिटिश सरकार कुंभ में जुटने वाली विशाल भीड़ को लेकर बेहद सतर्क हो गई। उन्हें डर था कि इस धार्मिक महापर्व के बीच कोई विद्रोह का बीज न पनप जाए।
सुरक्षा के नाम पर अंग्रेजों ने लगाया प्रतिबंध
कुंभ के आयोजन की मुख्य जिम्मेदारी तीर्थ पुरोहितों (पंडों) की होती थी, लेकिन अंग्रेजों ने उन पर खास निगरानी रखनी शुरू कर दी। सुरक्षा के नाम पर कई कठोर प्रतिबंध लगाए गए। मसलन, तीर्थ पुरोहितों को आदेश दिया गया कि वे अपने तंबुओं में केवल उन्हीं यात्रियों को ठहरने दें, जो पहले से उनके मेहमान रहे हों। इस आदेश का पालन सुनिश्चित करने के लिए तीर्थ पुरोहितों और कल्पवासियों से हलफनामे लिए गए।

अंग्रेज सरकार का उद्देश्य कुंभ में लोगों की भीड़ को सीमित करना था। वे इस आयोजन को नियंत्रित करना चाहते थे ताकि इससे किसी तरह का विद्रोह न उपजे।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुंभ को बनाया आय का नया जरिया
ईस्ट इंडिया कंपनी ने जल्द ही यह समझ लिया कि कुंभ मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह व्यापार और आय का एक बड़ा स्रोत बन सकता है। 1796 में मेजर जनरल थॉमस हार्डविक ने हरिद्वार कुंभ पर पहली रिपोर्ट तैयार की। इसके बाद, 1810 में रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत माघ मेले में टैक्स वसूली शुरू की गई।

कुंभ में आने वाले तीर्थ यात्रियों, संतों, और व्यापारियों से टैक्स लिया जाने लगा। तीर्थ पुरोहितों और श्रद्धालुओं ने इसका विरोध किया, लेकिन अंग्रेजों ने इसे अनदेखा कर दिया। इस टैक्स नीति से कंपनी को अच्छी खासी आय होने लगी।
1870 में आधिकारिक कुंभ का आरंभ
जैसे-जैसे कुंभ से राजस्व बढ़ा, अंग्रेजों ने इसे अपने नियंत्रण में लेना शुरू कर दिया। 1870 में पहली बार कुंभ के आयोजन की कमान ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने हाथ में ली। इसे पहला 'आधिकारिक कुंभ' माना जाता है। इसके बाद प्रयागराज में 1882, 1894, 1906, 1918 और 1930 में कुंभ का आयोजन हुआ।
1894 से कुंभ की जिम्मेदारी जिला मजिस्ट्रेट को सौंपी गई, जो आयोजन को बेहतर ढंग से संपन्न कराने के लिए उत्तरदायी थे। मेले को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए अंग्रेजों ने इंग्लैंड से तीन विशेष अफसर भी तैनात किए।

राजस्व और खर्च का गणित
1882 के प्रयाग कुंभ का ब्योरा उत्तर पश्चिम प्रांत के सचिव ए.आर. रीड ने तैयार किया। इस रिपोर्ट के अनुसार, मेले के आयोजन पर कुल 20,228 रुपये खर्च हुए, जबकि राजस्व के रूप में 49,840 रुपये प्राप्त हुए। यह आय कुंभ में व्यापार करने वाले नाइयों, मालियों, नाविकों, कनात वालों, फेरीवालों, और बैलगाड़ी चालकों से टैक्स के रूप में प्राप्त की गई।
विद्रोह का डर और आयोजन का उद्देश्य
कुंभ मेले में लोगों के विशाल संख्या में जुटने से अंग्रेजों को हमेशा विद्रोह की आशंका रहती थी। इसे नियंत्रित करने के लिए उन्होंने मेले की व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। हालांकि, अंग्रेजों ने राजस्व का एक हिस्सा मेले पर खर्च करना शुरू किया ताकि इसे व्यवस्थित बनाया जा सके और उनकी उपस्थिति को स्वीकार्य बनाया जा सके।
कुंभ का गौरव और अंग्रेजों की नीति
आदि शंकराचार्य द्वारा छठी शताब्दी में प्रारंभ किए गए इस महापर्व ने सदियों तक अपनी पहचान और महत्व को बनाए रखा। अंग्रेजों के नियंत्रण और व्यावसायिक दृष्टिकोण के बावजूद, कुंभ ने अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखा।