आज का दिन मेरे लिए किसी साधना से कम नहीं रहा। संयोगवश मुझे एक वृद्धाश्रम जाने का अवसर मिला। वहाँ कुल 21 वृद्धजन रहते हैं। पहले तो मैंने देखा कि वे सभी कुछ दूरी बनाए बैठे हैं—मानो मन ही मन कह रहे हों कि “फिर कोई आया है वही रटकर सीखे प्रश्न पूछने। वही पुरानी बातें सुनने और चले जाने।” वास्तव में उनका यह भाव अस्वाभाविक भी नहीं है। अक्सर लोग वृद्धाश्रम में जाते हैं- फल, मिठाई, कपड़े या थोड़ा-बहुत भोजन देकर लौट जाते हैं। उनसे वही घिसे-पिटे प्रश्न पूछे जाते हैं- “यहाँ कैसे आए? बेटा-बहू क्यों नहीं रखते? परिवार वाले मिलने आते हैं या नहीं?” और उन सवालों के जवाब देते-देते उन्हें बार-बार वही पुराने घाव कुरेदने पड़ते हैं।
मैंने मन ही मन ठान लिया कि ऐसे प्रश्न नहीं पूछूँगा। मैं उनके बीच जाकर ऐसे बैठा जैसे किसी बड़े घर में अपने दादा-दादी, नाना-नानी के पास बैठा हूँ। धीरे-धीरे सामान्य बातचीत शुरू हुई। पूजा-पाठ, दिनचर्या, खान-पान और संगीत पर बातें होने लगीं। पहले वे चुपचाप सुनते रहे, फिर पूछने लगे- “बेटा, आप कहाँ से हो? क्या करते हो?” मैंने अपने बारे में बताया। धीरे-धीरे बरसों से जमी बर्फ पिघलने लगी।

फिर गीत-संगीत और भजन की चर्चा चली और बिना कहे ही उनमें से एक वृद्धा अपनी आपबीती सुनाने लगी। जैसे किसी बंद बाँध का पट खुल गया हो। एक के बाद एक सभी ने अपनी-अपनी पीड़ाएँ उघाड़ दीं।
एक वृद्धा ने बताया- उसका इकलौता बेटा और बहू उसे ठीक से भोजन तक नहीं देते थे। बीमार पड़ी तो इलाज नहीं कराया गया। एक दिन बहू ने धक्का देकर गिरा दिया। जब उसने बेटे से शिकायत की तो बेटे ने उसे ही डाँट दिया। आहत होकर वह घर से निकल गई। कई दिन भटकती रही, फिर किसी सज्जन ने इस आश्रय का पता बताया। अब चार साल से यहीं है। बेटा-बहू ने एक बार भी हालचाल नहीं लिया।

एक अन्य बुज़ुर्ग ने कहा-उनके तीन बेटे हैं। पत्नी के देहांत के बाद कोई भी यह तय नहीं कर पाया कि पिता को साथ कौन रखेगा। अंततः सबने निर्णय लिया कि “आश्रम ही ठीक है।”
ज्यादातर कहानियाँ लगभग एक जैसी थीं- बचपन में बच्चों को पढ़ाना, लिखाना, घर बनवाना, शादी-ब्याह कराना, सारी जिम्मेदारियाँ निभाना और बुढ़ापे में वही बच्चों द्वारा मुंह मोड़ लिया जाना। इन बुज़ुर्गों के मन में अब भी बच्चों के लिए प्रेम है, पर गुस्सा भी है, चोट भी है। वे कहते हैं- “अब तो भगवान ही सहारा हैं, वही हमें यहाँ तक लाए, वही संभाल रहे हैं।”
आज का यह यथार्थ केवल उस आश्रम तक सीमित नहीं है। बदलते सामाजिक ढाँचे में संयुक्त परिवार बिखर गए हैं। शहरी जीवन की व्यस्तता, आर्थिक दबाव, और आत्मकेंद्रित सोच ने पारिवारिक रिश्तों को कमजोर कर दिया है। वृद्धजन, जिन्होंने कभी परिवार की नींव रखी, वही आज पराये हो गए। मोबाइल, इंटरनेट और नई जीवनशैली ने पीढ़ियों के बीच संवाद की खाई और चौड़ी कर दी है।
हमारे समाज में बुज़ुर्गों को “आशीर्वाद स्वरूप छाया” माना गया है। किंतु अब वे अक्सर बोझ समझे जाने लगे हैं। यह विडंबना ही है कि भौतिक सुखों की दौड़ में हमने सबसे बड़ा सुख- अपने बुज़ुर्गों की सेवा खो दिया है।

उनकी बातें सुनकर मेरा मन भीतर तक भीग गया। आँसू थे, पर जैसे आँखें उन्हें बाहर आने नहीं दे रही थीं। लौटते वक्त मैं और मेरा बेटा दोनों ही चुप थे। काफी देर बाद बेटे ने ही कहा- “अजीब लोग हैं इस दुनिया में, जिन्होंने माता-पिता को त्याग दिया।” उसकी यह बात मेरे हृदय में गूंज गई। हम दोनों ने तय किया कि हर रविवार हम लोग अभी- अभी बने इन दिल के रिश्तेदारों से मिलने जरूर जाएंगे, उनसे बातें करेंगे और इनके लिए जो कर सकेंगे - वो करेंगे भी । यही हमारी छोटी-सी श्रद्धांजलि होगी उन कहानियों के नाम, जिन्हें हमने आज सुना और अपने पूज्य स्मृतिशेष माता-पिता के लिए भी
आसरा वृद्धाश्रम को चलाने वाले लोग वास्तव में समाज के सच्चे सेवक हैं। उन्होंने उन टूटी हुई आत्माओं को जीवन का एक सहारा दिया है। वहाँ की व्यवस्था, सहयोग और प्रेम ही उन बुज़ुर्गों के लिए भगवान का रूप है। आज जब घर-घर में टीवी, मोबाइल और नई सुविधाएँ हैं, तो क्यों न हर घर में यह संकल्प भी हो कि “हम अपने बुज़ुर्गों को आश्रम तक पहुँचने ही न दें।” अगर हर परिवार यह जिम्मेदारी उठाए तो वृद्धाश्रम खाली हो सकते हैं।
आज का यह अनुभव मेरे जीवन का एक गहरा सबक बन गया। यह सच है कि हम सब एक दिन वृद्ध होंगे। आज जो अपने माँ-बाप की अनदेखी कर रहे हैं, कल उनके बच्चे वही करेंगे। रिश्तों की यह श्रृंखला तभी बची रह सकती है जब हम उसमें प्रेम, संवाद और कृतज्ञता को जोड़कर रखें। आसरा ओल्ड एज होम और वहाँ सेवा कर रहे सभी लोगों को हृदय से नमन।
डॉ. विनय कुमार वर्मा