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काशी के महाश्मशान पर नगर वधुओं ने रंगीन की रात: योगिनियों की नृत्यांजलि से ‘शव लोक’ बना ‘शिव लोक’, सुगंधित फूलों से सजा महाश्मशान नाथ का दरबार

डिमिग डिमिग डमरू कर बाजे, ओम नम: शिवाय की धुन, रजनीगंधा, गुलाब और अन्य सुगंधित फूलों की सुगंध, काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर शुक्रवार को नगर वधुओं ने रंगीन महफ़िल जमाई।


मौका था, बाबा महाश्मशान नाथ जी के त्रिदिवसीय श्रृंगार महोत्सव के समापन का। चैत्र नवरात्रि के पंचमी से सप्तमी तक चलने वाले श्रृंगार महोत्सव का शुक्रवार को भव्य समापन हुआ। सप्तमी तिथि पर मणिकर्णिका घाट स्थित बाबा महाश्मशान नाथ मंदिर में विशेष अनुष्ठान और आरती का आयोजन किया गया।

 


भगवान शिव की नगरी और मोक्ष की भूमि काशी अपने अनूठे रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां जहां मृत्यु एक उत्सव के रूप में देखी जाती है, वहीं मोक्ष का मार्ग भी यहीं से होकर गुजरता है। इन्हीं परंपराओं में से एक है मणिकर्णिका घाट पर चैत्र नवरात्र की सप्तमी रात को होने वाला अनोखा आयोजन, जहां जलती चिताओं के बीच नगरवधुएं नृत्य प्रस्तुत करती हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसकी भव्यता को देखने देश-विदेश से लोग बड़ी संख्या में आते हैं।


इस अवसर पर मंदिर प्रांगण को रजनीगंधा, गुलाब और अन्य सुगंधित फूलों से भव्य रूप से सजाया गया। तांत्रिक विधान से पंचमकार भोग अर्पित कर बाबा की महाआरती की गई। मान्यता है कि बाबा को प्रसन्न करने के लिए शक्ति ने योगिनी रूप धारण किया था। इस परंपरा का निर्वाह करते हुए योगिनियों ने नृत्यांजलि अर्पित कर बाबा को श्रद्धा सुमन समर्पित किए।


नगर वधुओं ने पेश की भावांजलि


आरती के उपरांत काशी की नगर वधुओं ने अपने गायन और नृत्य के माध्यम से परंपरागत भावांजलि समर्पित की। उन्होंने बाबा से प्रार्थना की कि उनका अगला जन्म शुभ हो। यह भावपूर्ण दृश्य देखकर श्रद्धालुओं की आंखें नम हो गईं।


सदियों पुरानी परंपरा का हुआ निर्वाह


कार्यक्रम के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए गुलशन कपूर ने बताया कि यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। जब राजा मानसिंह ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था, तब वहां संगीत की परंपरा स्थापित करने के लिए कोई भी कलाकार तैयार नहीं था। इस पर काशी की नगर वधुओं ने नटराज महाश्मशानेश्वर को अपनी भावांजलि अर्पित करने का प्रस्ताव रखा। राजा मानसिंह ने इसे स्वीकार किया, और तब से यह परंपरा अनवरत जारी है। नगर वधुओं को विश्वास था कि इस परंपरा का पालन करने से उनके नरकीय जीवन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। यही कारण है कि आज भी बिना बुलाए वे सप्तमी तिथि पर मणिकर्णिका घाट पहुंच जाती हैं।

 


श्रृंगार महोत्सव के अंतिम चरण में रात्रि जागरण का आयोजन किया गया। जलती चिताओं के बीच मंदिर प्रांगण में भक्तों ने भजन-कीर्तन कर बाबा का स्मरण किया। इस दौरान भक्तों ने "दुर्गा दुर्गति नाशिनी", "डिमिग डिमिग डमरू कर बाजे", "ओम नमः शिवाय", "मणिकर्णिका स्रोत" और अन्य पारंपरिक भजनों का गायन किया। गायकों ने "औम मंगलम औमकार मंगलम", "बम लहरी बम बम लहरी" जैसे भजनों से भक्तों को झूमने पर मजबूर कर दिया।


इस आयोजन में मंदिर अध्यक्ष चैनू प्रसाद गुप्ता, व्यवस्थापक गुलशन कपूर, महामंत्री बिहारी लाल गुप्ता, महंत संजय झींगरन, विजय शंकर पांडे, दिलीप यादव, संजय गुप्ता, दीपक तिवारी, अजय गुप्ता, रिंकू पांडेय, मनोज शर्मा समेत कई भक्तों और पदाधिकारियों ने भाग लिया।


काशी में नृत्य और संगीत का विशेष महत्व है, लेकिन मणिकर्णिका घाट पर होने वाला यह आयोजन अपने आप में अलग है। यहां चिताओं के धधकते अंगारों के बीच तबले और घुंघरुओं की गूंज सुनाई देती है। जहां एक ओर चिता की लपटें आसमान से एकाकार होती हैं, वहीं दूसरी ओर गणिकाएं अपने नृत्य से भगवान शिव को प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं। जलती चिताओं के बीच नगरवधुओं का यह नृत्य न केवल एक कला प्रदर्शन है, बल्कि एक आध्यात्मिक नृत्यांजलि भी मानी जाती है, जो मोक्ष की कामना के साथ समर्पित की जाती है।

 


मान्यता है कि इस आयोजन के दौरान भगवान शिव स्वयं ‘मशाननाथ’ के रूप में यहां विराजमान रहते हैं और हर चिता को मोक्ष प्रदान करते हैं। यही कारण है कि नगरवधुएं इस घाट पर नृत्य करके भगवान शिव को प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं। इस रात महाश्मशान में विराग के साथ राग की एक नई परिभाषा लिखी जाती है, जहां चिता के धुएं और तबले की थाप के बीच जीवन और मृत्यु का मिलन होता है।

अनोखी रात जब श्मशान जीवंत हो उठता है


यहां की खासियत यह है कि जलती चिताओं के बीच जब नृत्य की यह परंपरा निभाई जाती है, तो महाश्मशान भी मानो एक रात के लिए जीवंत हो उठता है। यह आयोजन केवल कला प्रदर्शन तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें दर्शन, आस्था और मोक्ष की परिकल्पना भी समाहित है। रातभर जब घुंघरुओं की झंकार और तबले की थाप गूंजती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो मृत्यु और जीवन का भेद मिट गया हो।

नगरवधुएं मंच के पीछे उठती आग की लपटों के बीच नृत्य कर भगवान शिव की स्तुति करती हैं। यह आयोजन कला, भक्ति और आस्था का संगम है, जो काशी की आध्यात्मिक संस्कृति को और भी विशेष बना देता है।


दूर-दूर से आते हैं लोग


काशी की यह परंपरा अब केवल स्थानीय आयोजन तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसे देखने के लिए दूर-दराज से ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी लोग पहुंचते हैं। इस उत्सव को देखने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक मणिकर्णिका घाट पर जुटते हैं। काशी की गलियों से गुजरते हुए जब लोग इस आयोजन तक पहुंचते हैं, तो वे एक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करते हैं, जो कहीं और देखने को नहीं मिलता।

 


कला और अध्यात्म का दिखता है संगम


मणिकर्णिका घाट पर होने वाला यह आयोजन कला और अध्यात्म का एक अद्भुत मेल है। जहां आमतौर पर मृत्यु के बाद शोक का वातावरण होता है, वहीं काशी में मृत्यु को मोक्ष का द्वार माना जाता है। इसी सोच को दर्शाते हुए यह उत्सव सदियों से मनाया जा रहा है।


यहां का माहौल ऐसा होता है कि जब चिताओं की रोशनी में नगरवधुएं अपने नृत्य से काशी के रक्षक भगवान शिव को रिझाने का प्रयास करती हैं, तब संपूर्ण वातावरण अध्यात्म और भक्ति से भर जाता है।

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