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मुर्दे का मूल्य | हरिशंकर परसाई

बैलाडिला में मज़दूरों पर गोली चल गयी। मज़दूर छँटनी के विरोध में आंदोलन कर रहे थे।


शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे, पैंतालीस दिनों से। इतने दिनों तक शांतिपूर्ण आंदोलन न खदानों के अधिकारियों को अच्छा लग रहा था, न शासन को, न पुलिस को।


दो-चार दिनों का शांतिपूर्ण आंदोलन अच्छा लगता है। पैंतालीस दिन कौन धीरज रखे बैठा रहेगा कि अब भगवान की दया से गोली चलाने का शुभ अवसर मिलेगा। आख़िर ऊबकर अधिकारियों ने एक दिन शांतिपूर्ण को अशांतिपूर्ण बना दिया।


बेचारे कब तक बंदूक़ लिये इंतज़ार करते रहते? पुलिस ने औरतों पर लाठी चला दी। वे कँटीले तारों में से फँसती, उलझती, फटी साड़ी, फटी चोली, आधी नंगी, पूरी नंगी, अपनी झोपड़ियों में अपने मर्दों के सामने पहुँचीं। मर्दों ने औरतों को अधनंगी देखा।


जो शांतिपूर्ण था, वह अशांतिपूर्ण हो गया। अधिकारियों की मनोकामना पूरी हुई, पुलिस ने गोलियाँ भर लीं। भगवान सबकी सुनता है। भगवान के राज में देर है, अँधेर नहीं है।


मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसी शांति और प्रसन्नता से बयान दिया, ‘जैसे शतचंडी यज्ञ की सफलता बता रहे हों, कुल नौ आदमी पुलिस की गोली से मारे गये, वे कहते हैं।


एक ने कहा-नौ नहीं, सौ मारे गये हैं।


मुख्यमंत्री ने देखा-हां, कांग्रेसी है। दूसरे ने कहा- यह तार मेरे पास है। पाँच सौ मज़दूर मारे गये हैं।


मुख्यमंत्री ने देखा-हूँ, मोती वाला वोरा है, इंदिरा कांग्रेस वाला। तीसरे ने कहा-बहुत ज़्यादा मौतें हुई हैं, तथ्यों को छिपाते जा रहे हैं।


मुख्यमंत्री ने देखा-हां, है तो जनता पार्टी का, पर कमबख़्त समाजवादी हैं। रघु ठाकुर का भड़काया हुआ है।


मुख्यमंत्री ने अपने जनसंघी साथियों की तरफ़ देखा। वे आँखों से कह रहे थे- अरे सखलेचा, तेरी अकल क्या काली टोपी में ही रखी रह गयी! नौ भी क्यों कहा? कह देता कि एक भी नहीं मरा। जो पता लगाने जाते, उन्हें भी मार डालते। किसे मालूम होता है!


अब मुख्यमंत्री ने मौत का हिसाब किया- बिलकुल बनिये की तरह ख़ून की क़ीमत तय करके दे दी। देखो भाई, तुम्हारे आलू के इतने पैसे हुए, बैंगन के इतने और टमाटर के इतने। न भूलचूक, न लेना-देना।


जो मरा, उसके परिवार वालों को पाँच हज़ार रुपये देंगे। जो ज़्यादा घायल होकर अस्पताल में है, उसे हज़ार रुपये। जिसकी सिर्फ़ मरहम पट्टी हुई है, उसे ढाई सौ रुपये। हो गया हिसाब साफ़।


अब फायरिंग के शिकार लोगों के परिवार की औरतें यों बात करती हैं- हमारी तो क़िस्मत फूट गयी। हमारे मर्द को मामूली मरहम-पट्टी हुई है तो हमें सौ ही मिलेंगे। तू भागवान है बाई, कि तेरा मर्द मर गया तो तुझे पाँच हज़ार मिलेंगे। हमारा मर्द तो शुरू से निखट्टू है। इस चमेली का घरवाला फिर भी ठीक है। अस्पताल में पड़ा है तो हज़ार रुपये तो मिलेंगे। हमारे मर्द से तो इत्ता भी न बना।


सरकार ने मरने वालों के परिवारों का मनोबल कितना ऊँचा उठा दिया है। लोग रोटी के बदले गोली खाने को तैयार हैं। सरकार के लिए भी रोटी से गोली सस्ती पड़ती है। वह रोटी की जगह गोली सप्लाई कर देती है।


सखलेचा कहते हैं- मज़दूरों को भड़काने के लिए बंगाल से लोग आये थे। यानी ज्योति बसु ने भेजा होगा। सब कम्यूनिस्टों की बदमाशी है। भूखे आदमी को यही कम्यूनिस्ट तो बताते हैं कि वह भूखा है। वरना हमारा सीधा-सादा मज़दूर क्या जाने कि वह भूखा है!


कर्पूरी ठाकुर कहते हैं- चार हरिजन मारे गये। ठीक है। पर सरकार ने तो उन्हें नहीं मारा। ज़मींदारों ने मारा। हम उनका पेमेंट क्यों करें? ख़ैर, हम तो उदार हैं। हर मरे हुए के लिए दो हज़ार दे देते हैं। रेट काफ़ी घटा दिया है सरकार ने।


सरकार चीज़ों की क़ीमत कम करने के लिए कटिबद्ध है। हमने आदमी की क़ीमत काफ़ी घटा दी है। जनता सरकार की, यह सबसे बड़ी सफलता है।


प्याज़ की क़ीमत चाहे बढ़ जाये, पर हम आदमी की क़ीमत हरगिज़ नहीं बढ़ने देंगे। चेन्ना रेड्डी कहते हैं- हैदराबाद में जो हुआ, वह नक्सलवादियों ने कराया।


रामनरेश यादव कह देते हैं-इंदिरा कांग्रेसियों ने कराया।


तीन परदे हैं- इंदिरा कांग्रेस, कम्यूनिस्ट और नक्सलवादी। मुख्यमंत्री की अक्षमता, अपराध, निकम्मेपन से जब उसका चेहरा विकृत होकर भेड़िये जैसा हो जाता है तब वह इंदिरा कांग्रेस, कम्यूनिस्ट या नक्सलवादी के परदे से अपने घिनौने चेहरे को छिपा लेता है।


इन मुख्यमंत्रियों से अब काम नहीं माँग सकते। रोटी नहीं माँग सकते। तनख़्वाह नहीं माँग सकते। न्याय नहीं माँग सकते। इनसे अब सिर्फ़ एक ही मांग की जा सकती है-मरने वाले आदमी की क़ीमत बढ़ाओ, हुज़ूर। पाँच हज़ार बहुत कम होते हैं। सब जिन्सों के दाम बढ़ गये हैं। आदमी का भी दाम बढ़ाइए।


सात हज़ार कर दें, हुज़ूर! आदमी हम शुद्ध सप्लाई करेंगे। मिलावट नहीं होगी। जितना चाहिए उतना माल सप्लाई करेंगे। आप जितने चाहें उतने आदमी मार डालिए। इसी मुआवज़ा बढ़ाने की माँग को लेकर आंदोलन हो जाये। देखें, फायरिंग के बाद एक-एक आदमी के शिकार के पाँच हज़ार देते हैं कि सात।


हमारे कठोरमुख गृहमंत्री को आदमी से मतलब ही नहीं है। उन्होंने आदमी को आँकड़े में बदल दिया है। हम कहते हैं, गोलीचालन से आदमी मरे। गृहमंत्री के लिए आँकड़े मरते हैं। हम समझते हैं, हरिजन जलाये जाते हैं। गृहमंत्री मानते हैं कि हरिजन नहीं, आँकड़े जलाये गये।


गृहमंत्री हर बार आँकड़े निकालकर बता देते हैं- देखो, इस परम मोदमयी रसभीनी बसंत ऋतु में इंदिरा सरकार के राज में 177 आदमी मारे गये थे, जबकि इसी बसंत ऋतु में हमारे राज में कुल 140 आदमी मारे गये। यानी इंदिरा गाँधी का सीजन अच्छा रहा। हमारा कुछ कम पड़ गया।


मैं कहता हूँ कि गृहमंत्री अपने विभाग की माँगों के साथ संसद से यह भी मंज़ूरी ले लें कि 37 आदमी गोली से और मारे जायें। फिर राज्य सरकारों को सर्कुलर भेज दें कि जल्दी आँकड़े पूरे करो। हरिजनों को जलाने के मामले में भी अगर इंदिरा गाँधी के सीजन से चरणसिंह का सीजन घटिया जा रहा हो, तो ऊँची जाति वालों और भूपतियों से कह दें कि आँकड़े पूरे करो।


(हरिशंकर परसाई के प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह ‘माटी कहे कुम्हार से’ से प्रकाशित एक अंश ‘मुर्दे का मूल्य‘)


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