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दीपावली पर जगमग होगा प्रदेश, काशी से अयोध्या तक जलेंगे लाखों दीप: दीये, खिलौने व मूर्तियां बनाने में जुटे कुम्हार, करोड़ों का होगा कारोबार, युवा पीढ़ी पारम्परिक व्यवसाय में नहीं ले रही रूचि
वाराणसी। दीपावली का पर्व आते ही पूरे देश में दीयों की बिक्री बढ़ जाती है। इस बार रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद पहली बार दीपावली मनाई जाएगी। इसके लिए शासन स्तर पर काशी से अयोध्या तक जगमग करने की तैयारी है।
पांच दिवसीय प्रकाश के महोत्सव के लिए कुम्हार भी युद्धस्तर पर लगे हुए हैं। कुम्हार मिट्टी के दीये, खिलौने, लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा आदि बनाने में जुटे हुए हैं। हालांकि बीते एक दशक में इस परम्परा में भी परिवर्तन आया है। अब मिट्टी के दीयों की जगह तमाम तरह के इलेक्ट्रॉनिक्स और झालर ने ले ली है। युवा पीढ़ी का अब इसमें इंटरेस्ट नहीं रह गया है, बावजूद इसके अभी भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो इस परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं।
सोशल मीडिया से लेकर प्रधानमंत्री और सामाजिक संस्थानों ने ‘लोकल फॉर वोकल’ के तहत मिट्टी से बने दीयों आदि को प्राथमिकता दी है। दीपावली का त्योहार नजदीक आते ही कुम्हारों के चाक पर भी तेजी आ जाती है। हर साल कुम्हार इस उम्मीद में अपनी कला को नए रूपों और डिजाइनों में ढालते हैं ताकि लोग उनके बनाए दीपों से अपने घरों को रोशन कर सकें।
चाइनीज लाइट्स ने दीयों की मांग को किया कमजोर
पिछले एक दशक से बाजार में चाइनीज लाइट्स और इलेक्ट्रिक झालरों का चलन इतना बढ़ गया है कि लोगों का परंपरागत मिट्टी के दीयों की ओर रुझान घटता जा रहा है। कुम्हारों का कहना है कि पहले लोग मिट्टी के दीयों का ही इस्तेमाल करते थे, जिससे न केवल घरों में रौशनी होती थी, बल्कि त्योहार की विशेष ऊर्जा का भी संचार होता था। परंतु अब यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे कम हो गई है, खासकर युवा पीढ़ी में।
नई पीढ़ी का मानना है कि मिट्टी के दीयों में तेल भरने, बाती लगाने और जलाने में अधिक समय लगता है। इसके मुकाबले चाइनीज झालरें और इलेक्ट्रिक लाइट्स को केवल एक बार लगाना होता है, और वे पूरे घर को तुरंत रौशन कर देती हैं। इस वजह से दीपावली पर मिट्टी के दीयों की बिक्री कम हो रही है, जिससे कुम्हारों की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा कुम्हारों की नई पीढ़ी भी इस काम को तवज्जों नहीं दे रही है।
मिट्टी की महंगाई और घटता मुनाफा
50 वर्षों से मिट्टी के दीये बनाने वाले रामनिवास प्रजापति ने बताया कि अब मिट्टी की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं कि दीपक बनाना लाभदायक नहीं रहा। पहले कुम्हारों को मिट्टी आस-पास के इलाकों में ही मिल जाती थी, परंतु अब शहरीकरण के कारण पास के खेतों में कॉलोनियां बन गई हैं, जिससे मिट्टी दूर के गांवों से लानी पड़ती है। अब एक ट्रॉली मिट्टी 2500 से 4000 रुपए तक में मिलती है, जिससे लागत बढ़ जाती है।
रामनिवास बताते हैं कि मिट्टी के दीयों की थोक बिक्री में भी मुनाफा न के बराबर है। 40 रुपए में 100 दीयों की बिक्री होती है, जिसमें प्रति दीपक मात्र 40 पैसे की आमदनी होती है। यहाँ तक कि ग्राहकों के बार-बार मोलभाव के कारण उन्हें और भी कम कीमत में बेचना पड़ता है, जिससे मुनाफा और घट जाता है।
युवा पीढ़ी का परंपरागत व्यवसाय से मोहभंग
कम मुनाफा और ज्यादा मेहनत के कारण इस परंपरागत व्यवसाय से युवा पीढ़ी का मोहभंग हो गया है। 40 वर्षों से कुम्हार का काम कर रहे श्याम लाल प्रजापति ने बताया कि अत्यधिक मेहनत के बावजूद उतनी कमाई नहीं होती कि परिवार का पालन-पोषण हो सके। इस वजह से उनके समाज के युवा अब दीपक बनाने की बजाय मजदूरी या अन्य रोजगारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। युवा पीढ़ी का यह रुझान परंपरागत कुम्हारी कला को संकट में डाल रहा है, जिससे आने वाले समय में यह व्यवसाय और भी क्षीण हो सकता है।
इलेक्ट्रिक चाक ने भी नहीं बदला भाग्य
कई कुम्हार अब हाथ से संचालित चाक की जगह इलेक्ट्रिक चाक का उपयोग करने लगे हैं, जिससे उनकी काम की गति में सुधार आया है। सरकारी योजनाओं और बैंकों से सहायता मिलने के कारण कई कुम्हार अब इलेक्ट्रिक चाक का उपयोग कर रहे हैं। बावजूद इसके कुम्हारी व्यवसाय की स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ है। युवा पीढ़ी अभी भी इस व्यवसाय से दूरी बनाए हुए है और महानगरों में नौकरी करने का रुझान अधिक हो गया है।
प्रमुख क्षेत्रों में दीयों का निर्माण जारी
हालांकि चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद, पूर्वांचल के जिलों में कुम्हार अभी भी दीपावली पर मिट्टी के दीये बनाने का कार्य कर रहे हैं। वारणसी, चंदौली, मिर्जापुर, भदोही, जौनपुर, गाजीपुर समेत कई जिलों में आज भी कई कुम्हार अपनी कला को जीवित रखे हुए हैं। चंदौली के अलीनगर और मुगलसराय में भी मिट्टी के दीयों का निर्माण जारी है, जहाँ कुम्हार अपनी जीविका चलाने के लिए इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।
पारंपरिक कुम्हारी कला का भविष्य
दीपावली के इस शुभ अवसर पर मिट्टी के दीपों का निर्माण केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि एक परंपरा है, जो त्योहार की धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता को बनाए रखता है। जहाँ चाइनीज लाइट्स और झालरों ने घरों को रोशन करने का एक सरल विकल्प प्रदान किया है, वहीं मिट्टी के दीपक त्यौहार की वास्तविक भावना और एक विशिष्ट भारतीय पहचान को दर्शाते हैं। कुम्हार समुदाय का कहना है कि यदि सरकार और समाज से इस व्यवसाय को समर्थन मिले और स्थानीय स्तर पर मिट्टी की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए, तो युवा पीढ़ी भी इस कला में रुचि ले सकती है और इसके अस्तित्व को बनाए रख सकती है।
कुम्हारों का यह भी मानना है कि आने वाली पीढ़ियों को परंपरागत कला की अहमियत और उसकी सांस्कृतिक महत्ता से परिचित कराना जरूरी है, ताकि यह व्यवसाय केवल एक रोजगार ही नहीं, बल्कि एक समृद्ध भारतीय धरोहर के रूप में संरक्षित रहे। अगर मिट्टी के दीयों की ओर लोगों का रुझान फिर से बढ़े और इसे एक नवीनता के साथ प्रस्तुत किया जाए, तो न केवल कुम्हारों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को एक स्थायी और स्वाभिमानी जीवनशैली भी मिल सकेगी।