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लखनऊ के ऐशबाग से जुड़ी हैं काशी के रामलीला की जड़ें, 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने कराया था शुरू
वाराणसी। काशी में पूरे एक माह तक आयोजित होने वाली रामलीला विश्वप्रसिद्ध है। इसका इतिहास महान कवि गोस्वामी तुलसीदास से जुड़ा है। 16वीं शताब्दी का वह दौरा, जब रामचरितमानस लोगों के लिए बस एक किताब हुआ करती थी, इस दौर में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रामलीला की शुरुआत से देशभर के हृदय में भगवान राम की छवि उतर जाती थी।
किवदंतियां हैं कि कई रामलीलाओं (Ramleela) में स्वयं भक्तों ने अपने आराध्य भगवान श्रीराम के दर्शन किए हैं। यूं तो काशी की रामलीला विश्व भर में विख्यात है। लेकिन क्या आपको पता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने काशी से पहले ही लखनऊ में रामलीला की शुरुआत करा दी थी। जी हां, काशी में होने वाली रामलीला की जड़ें लखनऊ के ऐशबाग व चित्रकूट से जुड़ी हैं।
यह वह दौर था, जब अवधी में लिखी रामचरितमानस की चौपाईयां लोगों के समझ से परे थीं। इन्हीं चौपाईयों को लोगों के ह्रदय तक पहुँचाने व भगवान के चरित्र को स्वयं में उत्तारने के उद्देश्य से ऐसे मंचन की शुरुआत की गई थी। इस आयोजन में अयोध्या के साधु संतों ने भी प्रमुख रूप से सहयोग किया था।
16 शताब्दी के पूर्व गोस्वामी तुलसीदास जी जब लखनऊ के ऐशबाग़ में चौमासा प्रवास कर रहे थे, उसी समय उन्होंने दैवीय प्रेरणा से इस रामलीला (Ramleela) के मंचन की नीव रख दी थी। उनके मुताबिक, रामचरितमानस का एक ऐसा सजीव मंचन हो, जिसके माध्यम से निरक्षर भी श्रीरामचरित मानस की चौपाईयों को समझ कर उसका अनुसरण कर सकें। उन्हें अपने जेहन में उतार सके।
गोस्वामी तुलसीदास ने अभिनय के माध्यम से रामकथा का प्रसार (Ramleela) करने का प्रण लिया। उनके इस पुनीत कार्य में अयोध्या के साधु-संतों ने भी सहयोग किया। श्रीराम चरित मानस की रचना करने वाले गोस्वामी तुलसीदास ने बाद में इसे अभियान का रुप दिया जिसके बाद रामचरित मानस पर आधारित लीला का मंचन देश भर में शुरू कर दिया गया।
रामलीला (Ramleela) को नवाब आसिफुद्दौला ने दिलायी पहचान
इतिहास की कुछ किताबों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि रामलीला को लेकर 16 वीं शताब्दी के पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने ऐशबाग में जो भी परिकल्पना तैयार की थी उसको असली पहचान उस दौर के अवध के नवाब आसिफुद्दौला ने दिलायी थी। उन्होंने न केवल यहां ईदगाह और रामलीला (Ramleela) के लिए एक साथ बराबर-बराबर साढ़े छह एकड़ जमीन दी बल्कि खुद भी रामलीला में बतौर पात्र शामिल होते रहे।
अवध में थी गंगा जमुनी तहजीब की जड़ें
काशी की गंगा जमुनी तहजीब से पूर्व लखनऊ में इसे अमली जामा पहनाया जा चुका था तभी तो रामलीला (Ramleela) के मंचन में किसी भी तरह का व्यवधान ना हो इसके लिए अवध के तीसरे बादशाह ने अपने शाही खजाने से रामलीला के लिए मदद भेजनी शुरू कर दी थी। इतना ही नहीं वो इस लीला को देखते भी थे। उनके द्वारा भेजे गये शाही खजानें की मदद ने इसकी जड़ों को और मजबूत कर दिया।
गदर के दौरान दो साल बंद रही लीला
1857 के गदर के दौरान एक बार इस लीला (Ramleela) पर ग्रहण लग गया, ये वो दौर था जब क्रांति की अलख जग गयी थी। 1857 से 1859 तक ये रामलीला बंद रही। ब्रिटिश हुक्मरानों के डर से लोगों ने इसे बंद करना ही मुनासिब समझा दो साल का वौ दौर पूरी तरह से लीला का ग्रहण काल था। लेकिन 1860 में ऐशबाग रामलीला समिति का गठन कर दिया गया। फिर इसे नये स्वरुप में तैयार करते हुए पूरे जोश के साथ मंचन शुरू कर दिया गया।
ऐशबाग में ही गोस्वामी जी ने विनय पत्रिका को दी गति
उस दौर में ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐशबाग रामलीला मैदान स्थल पर ही विनय पत्रिका का आलेख किया था। उसी की स्मृति में तुलसी शोध संस्थान की शुरूआत की गई। 2004 में संस्थान का भवन बना। दुनिया भर में प्रसिद्ध 100 रामायण में से 82 का संकलन किया जा चुका है। यहां राम भवन भी बन चुका है। बदलते समय के साथ रामलीला का स्वरूप भी बदलता रहा है। पहले यहां रामलीला मैदान के बीचों-बीच बने तालाबनुमा मैदान में होती थी और चारों ओर ऊंचाई पर बैठे लोग इसे देखते थे। मैदानी रामलीला की जगह अब यहां आधुनिक तकनीक से लैस डिजिटल रामलीला का मंचन हॉट है।
पीएम मोदी ने रावण का किया था वध
रामलीला समिति के अध्यक्ष हरिश्चंद्र अग्रवाल के मुताबिक, ऐशबाग के साथ गोस्वामी तुलसीदास ने चित्रकूट, वाराणसी में भी रामलीला की नींव रखी। ऐशबाग रामलीला के लिए वर्ष 2016 विशेष महत्व का रहा। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ऐशबाग रामलीला में शामिल हुए थे और तीर चलाकर रावण का वध किया था। संयोजक आदित्य द्विवेदी ने बताया कि गोस्वामी तुलसीदास की प्रेरणा से रामलीला की जो यात्रा शुरू हुई आज देश भर में उसे पहचान मिल गयी।