जब नागा साधुओं को देख भयभीत हो गई थी अफगानी सेना, आम इंसानों से अलग होती है इनकी दुनिया, जानिए क्या है इतिहास 

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प्रयागराज में महाकुंभ समाप्ति की ओर बढ़ रहा है, और इसके साथ ही नागा साधुओं का यहां से विदा होने का क्रम भी जारी है। हालांकि, उनके जाने के बावजूद लोग अब भी उनकी रहस्यमयी जीवनशैली, आक्रामकता और सनातन धर्म के प्रति उनके समर्पण को लेकर जिज्ञासु बने हुए हैं। नागाओं की परंपराओं, उनके स्वरूप और उनके अलग-अलग भावों को समझने के लिए श्रद्धालु और शोधकर्ता लगातार उनके शिविरों का दौरा कर रहे हैं। जब कोई व्यक्ति उन्हें करीब से देखता है, तो पाता है कि हर नागा साधु के भाव और स्वभाव अलग-अलग होते हैं। कोई अत्यंत शांत और धैर्यवान नजर आता है, तो कोई अत्यधिक आक्रामक और उग्र प्रतीत होता है। आखिर इन भावों के पीछे क्या रहस्य है?


नागा साधुओं की आक्रामकता का कारण


महाकुंभ क्षेत्र में स्थित सेक्टर 19 में एक नागा संन्यासी ने बताया कि नागा संन्यासियों की आक्रामकता स्वाभाविक होती है, क्योंकि वे केवल संन्यासी ही नहीं, बल्कि योद्धा भी होते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य ने इन्हें सनातन धर्म की रक्षा के लिए ही तैयार किया था। उनका मत था कि धर्म की सुरक्षा के लिए एक हाथ में शास्त्र और दूसरे हाथ में शस्त्र होना आवश्यक है। यही कारण है कि नागाओं का स्वभाव एक योद्धा के समान होता है। हालांकि, प्रत्येक नागा का स्वभाव और भाव उसकी दीक्षा पर निर्भर करता है। दीक्षा के दौरान उसे विभिन्न विधियों और परंपराओं से गुजारा जाता है, जिसके आधार पर उसका स्वभाव तय होता है।


नागाओं की दीक्षा परंपराएं और उनके स्वरूप


प्रयागराज के महाकुंभ में जो साधु दीक्षा ग्रहण करते हैं, उन्हें राजेश्वर नागा कहा जाता है। इसी प्रकार, उज्जैन में दीक्षा लेने वाले साधुओं को खूनी नागा, हरिद्वार में दीक्षा लेने वालों को बर्फानी नागा और नासिक में दीक्षित साधुओं को खिचड़िया नागा कहा जाता है। भले ही ये अलग-अलग नामों से जाने जाते हों, लेकिन इनका एक ही उद्देश्य होता है—सनातन धर्म की रक्षा।


खूनी नागा साधु विशेष रूप से अपनी उग्रता के लिए प्रसिद्ध हैं। वे एक योद्धा के समान मानसिकता रखते हैं और यदि धर्म की रक्षा के लिए खून बहाने की आवश्यकता हो, तो वे पीछे नहीं हटते। वहीं, बर्फानी नागा अत्यंत कठोर तपस्या करते हैं और कठिन साधना के लिए विख्यात होते हैं।


नागाओं की जिम्मेदारियां और पद


अखाड़ों में नागा साधुओं की विशेष भूमिका होती है। उनमें से कुछ को चुनकर विशिष्ट पदों पर नियुक्त किया जाता है और उनके कंधों पर अहम जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं। प्रत्येक अखाड़े की परंपरा के अनुसार इन पदों में थोड़े-बहुत बदलाव हो सकते हैं, लेकिन आम तौर पर ये प्रमुख पद होते हैं:


•    आचार्य महामंडलेश्वर
•    महामंडलेश्वर
•    श्रीमहंत
•    महंत
•    थाना पति
•    अष्ट कौशल
•    श्री पंच
•    श्री शंभू पंच
•    पंच परमेश्वर
•    मुखिया महंत
•    कारोबारी
•    कोठारी
•    नागा सैनिक


इतिहास में नागाओं का युद्ध कौशल


नागा साधु केवल आध्यात्मिक जीवन जीने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका इतिहास भीषण युद्धों और संघर्षों से भरा रहा है। 1757 में मथुरा के गोकुल में अफगान सेना के खिलाफ हुए युद्ध में नागा साधुओं के पराक्रम की गाथा आज भी याद की जाती है। जब अहमद शाह अब्दाली की सेना मंदिरों को नष्ट करने के इरादे से आई थी, तब नागाओं ने अपने रौद्र रूप से उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। भभूत से लिपटे हुए, लाल आंखों वाले और नग्न अवस्था में खड़े नागा साधुओं को देखकर अफगान सैनिक भयभीत हो गए थे।


इतिहास इस बात का साक्षी है कि नागा साधुओं ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए हर युग में अपनी भूमिका निभाई है। आज भी वे अखाड़ों के माध्यम से अपनी परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं और सनातन संस्कृति की सुरक्षा में अपना योगदान दे रहे हैं।

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