संत नरहरिदास 13वीं सदी के एक प्रसिद्ध महाराष्ट्रीयन संत, कवि और सुनार थे, जो भगवान शिव के परम भक्त माने जाते हैं। वे भक्ति मार्ग के अनुयायी थे और शिवोपासना में लीन रहते थे। हालांकि, जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना के बाद उन्होंने यह अनुभव किया कि भगवान शिव और विष्णु (पांडुरंग/विठोबा) एक ही हैं। संत नरहरिदास को हिंदी साहित्य की भक्ति परंपरा में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में भी जाना जाता है।
इतना ही नहीं, वे तुलसीदास के गुरु माने जाते हैं, जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की थी। उनके गुरु-शिष्य संबंध की एक मूर्ति सूकरखेत पसका में स्थापित है, जहां श्रद्धालु गुरु पूर्णिमा और माघ पूर्णिमा के दिन उनकी विशेष पूजा-अर्चना करते हैं।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
संत नरहरिदास का जन्म महाराष्ट्र के देवगिरी (वर्तमान औरंगाबाद) में एक सुनार परिवार में हुआ था। हालांकि उनके जन्म के तारीखों के विषय में कोई सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। वह तुलसीदास के समकालीन माने जाते हैं। उनके पिता, दीनानाथ सुनार, स्वर्णाभूषण (सोने के आभूषण) बनाने का कार्य करते थे और अपने काम में निपुण थे। पारिवारिक वातावरण धार्मिक था, इसलिए बचपन से ही नरहरिदास भक्ति और साधना के प्रति आकर्षित होने लगे थे।
वे एक कट्टर शिवभक्त थे और पंढरपुर में रहते थे, लेकिन वहां के प्रसिद्ध पांडुरंग (भगवान विष्णु के स्वरूप) के मंदिर में कभी दर्शन नहीं करते थे। उनका मानना था कि शिव ही सर्वोच्च देवता हैं और वे केवल उनकी ही उपासना करेंगे।
भगवान विठोबा के हुए साक्षात दर्शन
एक दिन, एक साहूकार ने संत नरहरिदास से भगवान पांडुरंग के लिए एक कमरधनी (सोने का आभूषण) बनाने का अनुरोध किया। उन्होंने यह शर्त रखी कि वे मंदिर के भीतर नहीं जाएंगे, बल्कि व्यापारी स्वयं मूर्ति का माप लेकर आएगा।
उन्होंने उस माप के आधार पर कमरधनी बनाई, लेकिन जब इसे भगवान पांडुरंग की मूर्ति पर पहनाया गया, तो यह सही से फिट नहीं हुई। उन्होंने दोबारा आभूषण को ठीक किया, लेकिन फिर भी यह ढीला रह गया। व्यापारी ने संत नरहरिदास से अनुरोध किया कि वे स्वयं मंदिर में आकर इसे ठीक करें। हालांकि, वे अपनी शिवभक्ति के कारण मंदिर में प्रवेश करने से मना कर रहे थे।
आखिरकार, बहुत आग्रह करने पर, उन्होंने आंखों पर पट्टी बांधकर मूर्ति को स्पर्श किया। जैसे ही उनके हाथों ने पांडुरंग की प्रतिमा को छुआ, उन्हें महसूस हुआ कि यह कोई साधारण मूर्ति नहीं थी। उन्होंने मूर्ति को पांच सिर और दस भुजाओं के साथ पाया, जिसकी जटाएं थीं और जो नागों के आभूषण पहने हुए था—यानी वह शिव का ही स्वरूप था।
आश्चर्यचकित होकर उन्होंने आंखों पर बंधी पट्टी हटा दी, और उनके सामने भगवान विठोबा (पांडुरंग) का दिव्य स्वरूप प्रकट हो गया। तभी उन्हें यह बोध हुआ कि शिव और विष्णु अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही परमतत्व के दो रूप हैं। इस अनुभूति के बाद, वे शिव के साथ-साथ भगवान पांडुरंग के भी भक्त बन गए और उनके नाम का संकीर्तन करने लगे।
संत नरहरिदास की शिक्षाएं और योगदान
भगवान पांडुरंग के प्रत्यक्ष दर्शन के बाद, संत नरहरिदास ने भक्ति के मार्ग को और अधिक गहराई से अपनाया। वे धार्मिक संप्रदायों के भेदभाव से ऊपर उठ गए और ईश्वर की एकता का संदेश फैलाने लगे। उन्होंने शिव और विष्णु की एकता को स्थापित करने के लिए कई प्रवचन दिए और भक्ति साहित्य की रचना की।
उनकी शिक्षाओं के मुख्य पहलू निम्नलिखित थे:
1. ईश्वर की एकता – वे मानते थे कि शिव और विष्णु में कोई अंतर नहीं है, दोनों ही एक ही परब्रह्म के स्वरूप हैं।
2. सभी संप्रदायों का सम्मान – उन्होंने शैवों और वैष्णवों के बीच सद्भाव स्थापित करने के लिए कार्य किया।
3. भक्ति की महत्ता – उन्होंने कहा कि निस्वार्थ प्रेम और भक्ति के माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
4. सद्गुरु की महिमा – उनके अनुसार, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक योग्य गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है।
तुलसीदास को दी राम नाम की दीक्षा
संत नरहरिदास को तुलसीदास के गुरु के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने तुलसीदास को भक्ति मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया और राम नाम की महिमा का बोध कराया। इसी कारण, तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की और भक्ति आंदोलन को आगे बढ़ाया।
रामानंद संप्रदाय के अनुसार, संत नरहरिदास रामानंद के शिष्य नरहर्यानंद से दीक्षा प्राप्त करने के बाद संन्यास मार्ग में आए थे। वे भक्ति मार्ग के प्रमुख प्रचारकों में से एक थे और संत कबीर, रैदास, पीपा, धन्ना जैसे संतों की परंपरा में आते थे।
साहित्यिक योगदान
संत नरहरिदास न केवल एक भक्त और गुरु थे, बल्कि उन्होंने भक्ति साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने मराठी और हिंदी में कई रचनाएं लिखीं, जिनमें प्रमुख रूप से शामिल हैं:
1. संवगडे निवृत्ती सोपान मुक्ताई
2. शिव आणी विष्णु एकचि प्रतिमा
3. रुक्मिणी मंगल
4. छप्पय नीति
5. कवित्त संग्रह
इन रचनाओं में उन्होंने भक्ति, सद्गुरु की महिमा, मानव जीवन के उद्देश्य और ईश्वर की एकता पर प्रकाश डाला।
समाज सुधार में दिया महत्वपूर्ण योगदान
संत नरहरिदास का प्रभाव केवल धार्मिक जगत तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने समाज सुधार के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किए। वे जाति-पाति, ऊँच-नीच और भेदभाव के घोर विरोधी थे। उन्होंने भक्ति को सभी के लिए समान रूप से सुलभ बनाया और कहा कि ईश्वर के दरबार में सभी समान हैं।
उनकी शिक्षाओं का प्रभाव आगे चलकर वारकरी संप्रदाय पर भी पड़ा, जो आज भी पंढरपुर में भगवान विठोबा की भक्ति करता है।
भक्ति और साधना में बीता पूरा जीवन
संत नरहरिदास ने अपना पूरा जीवन भक्ति, साधना और लोककल्याण में समर्पित कर दिया। उनकी मृत्यु 1313 ईस्वी में हुई। उनके बाद उनके शिष्यों ने उनके विचारों को आगे बढ़ाया।
आज भी महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में उनके प्रति गहरी श्रद्धा देखी जाती है। पंढरपुर में उनके सम्मान में एक मंदिर बनाया गया है, जहां भक्त उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। गुरु पूर्णिमा और माघ पूर्णिमा के दिन विशेष रूप से उनकी मूर्ति का पूजन किया जाता है।