वाराणसी। "मुट्ठी में तक़दीर हमारी…" इस गीत की पंक्तियां एक समय बच्चों के सपनों और उनके उज्ज्वल भविष्य की आशा से भरी होती थीं। लेकिन आज जब आप ट्रैफिक सिग्नल, मंदिरों के बाहर या घाटों पर छोटे-छोटे बच्चों को भीख मांगते देख लें, तो यह सवाल ज़रूर मन में उठता है कि इन नन्हे हाथों में किताबें क्यों नहीं हैं? इनकी मुस्कानें बोझिल क्यों हैं? इनके सपनों को आखिर कुचल कौन रहा है?
इन ही सवालों ने काशी की एक महिला को इस कदर झकझोर दिया कि उन्होंने खुद को समर्पित कर दिया—उन बच्चों के लिए जिनका बचपन भीख मांगते हुए बीत रहा था। वाराणसी की प्रतिभा सिंह आज ऐसे 250 से ज्यादा बच्चों को शिक्षा और आत्मसम्मान की राह पर ले आई हैं, जिन्हें कभी समाज ने ‘बेकार’ समझ कर किनारे कर दिया था।
शुरुआत एक सोच से…
साल 2013 की एक सर्द सुबह थी। प्रतिभा सिंह अपने कुछ दोस्तों के साथ झुग्गियों में कम्बल बांटने गई थीं। वहां उन्होंने देखा कि कई छोटे बच्चे नंगे पांव, बिना गर्म कपड़ों के, खुले आसमान के नीचे कांपते हुए थे। न किसी को स्कूल की चिंता थी, न किताब की समझ। इसके बाद संकटमोचन मंदिर के बाहर कुछ बच्चों को भीख मांगते देख उनका दिल बैठ गया। वहीं से उनके भीतर यह सवाल जन्म लेने लगा—“आखिर इन मासूमों की क्या गलती है?” यहीं से शुरू हुआ बदलाव का एक सशक्त अभियान।
अकेले दम पर रखी नींव
प्रतिभा ने शुरुआत में केवल दो-तीन बच्चों को अपने घर लाकर नहलाना, खाना खिलाना और पढ़ाना शुरू किया। शुरुआत आसान नहीं थी—परिवार में विरोध हुआ, समाज के ताने सुनने पड़े, लेकिन उनका संकल्प अडिग था। धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी, और उन्होंने इसे एक संस्था का रूप दिया।
आज वह अपने घर में ही एक छोटा स्कूल चलाती हैं, जहां ऐसी बस्तियों से आए बच्चे पढ़ते हैं जो कभी भीख मांगने में लगे रहते थे। पहले जहां इन बच्चों के परिवार उन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर करते थे, आज वही अभिभावक उन्हें स्कूल छोड़ने आते हैं।
बढ़ती संख्या और चुनौतियां
प्रतिभा के प्रयासों की गूंज फैलती गई और धीरे-धीरे इन बच्चों की संख्या 10 से बढ़कर 250 से अधिक तक पहुंच गई। कक्षा एक तक की पढ़ाई वह खुद अपने स्कूल में कराती हैं। जब बच्चे तैयार हो जाते हैं, तब उनका एडमिशन शहर के प्रतिष्ठित स्कूलों में करवाया जाता है।
फिलहाल 150 बच्चे ऐसे हैं जो शहर के नामी स्कूलों में कक्षा छह से आठ तक की पढ़ाई कर रहे हैं। ये बच्चे अब न केवल अंग्रेज़ी में कविता सुना सकते हैं, बल्कि सामान्य ज्ञान, नैतिक शिक्षा और सामाजिक सरोकारों की बातें भी करते हैं। इन सभी बच्चों में संस्कृति का ऐसा बीजरोपण किया गया है कि कई पीढियां संवर जाएंगी।
प्रतिभा बताती हैं कि करीब 100 बच्चों का दाखिला बाहरी स्कूलों में कराया गया है, लेकिन कुछ बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़कर वापस चले गए। फिर भी लगभग तीन दर्जन बच्चे आज भी उनकी उम्मीद का प्रतीक बने हुए हैं।
मदद के हाथ धीरे-धीरे बढ़े
शुरुआत में सबसे बड़ी समस्या रही पैसों की। घर की आय सीमित थी और इतने बच्चों का खर्च उठा पाना मुश्किल था। लेकिन उनके ईमानदार प्रयासों को देख कुछ दोस्त, डॉक्टर, और शहर के समाजसेवी उनके साथ जुड़ते चले गए। कुछ स्कूलों ने न केवल एडमिशन फीस माफ की, बल्कि ट्रांसपोर्ट, खाना और किताबों तक का खर्च खुद उठाना शुरू कर दिया।
साल 2014 में शहर के एक बड़े डॉक्टर ने 70,000 रुपये की किताबें दान कीं। अब तक सैकड़ों बच्चों का एडमिशन बड़े स्कूलों में हो चुका है। इसके अलावा बच्चों को देखकर उनके माता-पिता की भी जीवनशैली बदल चुकी है। कभी एक बोरी चावल के लिए अपना धर्म बदल देने वाले अब अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति की शिक्षा लेते देख प्रफुल्लित हो रहे हैं।
प्रशासन से अब भी उपेक्षा
प्रतिभा सिंह की एकमात्र नाराजगी है कि इतने वर्षों की मेहनत के बावजूद प्रशासन से उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई है। वे बार-बार जिला प्रशासन के पास योजनाएं लेकर गईं, लेकिन या तो उनकी बातों को अनसुना कर दिया गया या फिर ऐसे सवाल पूछे गए जो हतोत्साहित करने वाले थे।
उनका स्पष्ट कहना है कि वह भले ही एनजीओ चला रही हैं, लेकिन सरकारी फंड या योजनाओं का कोई लाभ उन्हें नहीं मिला है। जो भी कुछ हो रहा है, वह समाज के जागरूक लोगों की व्यक्तिगत मदद से संभव हो रहा है।
शिक्षा के साथ संस्कार की भी जगा रहीं अलख
प्रतिभा का स्कूल शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को संस्कार भी देता है। हर दिन की शुरुआत प्रार्थना और गायत्री मंत्र से होती है। राष्ट्रगान के बाद बच्चों को अंग्रेज़ी, हिंदी और गणित की पढ़ाई कराई जाती है। बच्चों को जब यह समझ आ जाता है कि शिक्षा क्या है, तब उन्हें बाहरी स्कूलों में भेजा जाता है।
प्रतिभा का कहना है कि इन बच्चों को केवल शिक्षा नहीं, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता भी सिखाना है। उन्हें यह अहसास कराना है कि भीख मांगना उनकी नियति नहीं, बल्कि शिक्षा के ज़रिए वे अपने भविष्य को खुद लिख सकते हैं।
प्रतिभा ने बातचीत में बताया कि उनका काम गरीब बच्चों को पढ़ाना नहीं है, वह उन बच्चों का जीवन बदलने का काम कर रही हैं, जिनके माता-पिता लालच में अपने बच्चों को भीख मांगने पर मजबूर कर रहे हैं। वह उन बच्चों की पीढियां संवारने की जिम्मेदारी ले रही हैं।
‘मैडम जी’ के नाम से प्रसिद्ध
वाराणसी की जिन बस्तियों से प्रतिभा बच्चे लाती हैं, वहां के लोग उन्हें स्नेह से ‘मैडम जी’ कहते हैं। ये वही लोग हैं जो कभी बच्चों को स्कूल भेजने के खिलाफ थे। आज वे खुद चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर एक नई राह पर चलें।
बच्चों की माताएं कहती हैं, "हम गरीबी और मजबूरी में पढ़ नहीं पाए, लेकिन हमारे बच्चे आज जब पढ़ाई करके हमें मंत्र सुनाते हैं, तो दिल गर्व से भर जाता है।"
भिक्षावृत्ति पर रोक संभव
प्रतिभा का मानना है कि अगर प्रशासनिक स्तर पर गंभीरता दिखाई जाए, तो विशेषकर बच्चों में भिक्षावृत्ति को जड़ से खत्म किया जा सकता है। समाज में परिवर्तन तभी आएगा जब नीतियां ज़मीन पर उतरें और ऐसे प्रयासों को सरकारी स्तर पर समर्थन मिले।
आज प्रतिभा सिंह अपने सीमित संसाधनों के साथ 250 से अधिकी बच्चों का जीवन बदल रही हैं, लेकिन उनकी इच्छा है कि वह सैकड़ों बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकें। वह कहती हैं, "अगर सरकार हमारे साथ खड़ी हो जाए, तो हर ट्रैफिक सिग्नल, हर मंदिर के बाहर भीख मांगते बच्चे कल डॉक्टर, इंजीनियर और टीचर बन सकते हैं।"
एक महिला के संकल्प, त्याग और समर्पण से आज 250 से अधिक बच्चों का जीवन बदल चुका है। प्रतिभा सिंह ने साबित कर दिया कि बदलाव के लिए बड़ी व्यवस्था नहीं, बस एक मजबूत इरादा और इंसानियत चाहिए। उनकी यह कहानी सिर्फ प्रेरणा नहीं, बल्कि उस उम्मीद की किरण है, जो अंधेरे में भी राह दिखाती है।