वाराणसी। भगवान शिव की नगरी और मोक्ष की भूमि काशी अपने अनूठे रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां जहां मृत्यु एक उत्सव के रूप में देखी जाती है, वहीं मोक्ष का मार्ग भी यहीं से होकर गुजरता है। इन्हीं परंपराओं में से एक है मणिकर्णिका घाट पर चैत्र नवरात्र की सप्तमी रात को होने वाला अनोखा आयोजन, जहां जलती चिताओं के बीच नगरवधुएं नृत्य प्रस्तुत करती हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसकी भव्यता को देखने देश-विदेश से लोग बड़ी संख्या में आते हैं।
राग और विराग का अनोखा संगम
काशी में नृत्य और संगीत का विशेष महत्व है, लेकिन मणिकर्णिका घाट पर होने वाला यह आयोजन अपने आप में अलग है। यहां चिताओं के धधकते अंगारों के बीच तबले और घुंघरुओं की गूंज सुनाई देती है। जहां एक ओर चिता की लपटें आसमान से एकाकार होती हैं, वहीं दूसरी ओर गणिकाएं अपने नृत्य से भगवान शिव को प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं। जलती चिताओं के बीच नगरवधुओं का यह नृत्य न केवल एक कला प्रदर्शन है, बल्कि एक आध्यात्मिक नृत्यांजलि भी मानी जाती है, जो मोक्ष की कामना के साथ समर्पित की जाती है।
चिताओं के बीच नृत्य की अनूठी परंपरा
मान्यता है कि इस आयोजन के दौरान भगवान शिव स्वयं ‘मशाननाथ’ के रूप में यहां विराजमान रहते हैं और हर चिता को मोक्ष प्रदान करते हैं। यही कारण है कि नगरवधुएं इस घाट पर नृत्य करके भगवान शिव को प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं। इस रात महाश्मशान में विराग के साथ राग की एक नई परिभाषा लिखी जाती है, जहां चिता के धुएं और तबले की थाप के बीच जीवन और मृत्यु का मिलन होता है।
यह नृत्यांजलि केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि मोक्ष की आकांक्षा से जुड़ी एक विशेष श्रद्धा है। नगरवधुएं मानती हैं कि इस नृत्य के माध्यम से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी और जीवन के चक्र से मुक्ति मिलेगी। आयोजन से जुड़े लोग बताते हैं कि यह नृत्य केवल कला प्रदर्शन नहीं, बल्कि भगवान शिव के प्रति समर्पण का प्रतीक है।
इतिहास में जड़ें जमाए यह आयोजन
इस परंपरा की शुरुआत को लेकर मान्यता है कि मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने काशी में भगवान शिव के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। इस अवसर पर वे एक भव्य सांस्कृतिक आयोजन कराना चाहते थे, लेकिन कोई भी कलाकार श्मशान घाट में प्रस्तुति देने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब नगर की गणिकाओं ने स्वयं आगे आकर इस आयोजन में नृत्य करने की इच्छा जताई। तभी से यह परंपरा काशी में जन्मी और धीरे-धीरे यह एक अनिवार्य उत्सव का रूप ले चुकी है।
अनोखी रात जब श्मशान जीवंत हो उठता है
यहां की खासियत यह है कि जलती चिताओं के बीच जब नृत्य की यह परंपरा निभाई जाती है, तो महाश्मशान भी मानो एक रात के लिए जीवंत हो उठता है। यह आयोजन केवल कला प्रदर्शन तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमं दर्शन, आस्था और मोक्ष की परिकल्पना भी समाहित है। रातभर जब घुंघरुओं की झंकार और तबले की थाप गूंजती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो मृत्यु और जीवन का भेद मिट गया हो।
नगरवधुएं मंच के पीछे उठती आग की लपटों के बीच नृत्य कर भगवान शिव की स्तुति करती हैं। यह आयोजन कला, भक्ति और आस्था का संगम है, जो काशी की आध्यात्मिक संस्कृति को और भी विशेष बना देता है।
दूर-दूर से आते हैं लोग
काशी की यह परंपरा अब केवल स्थानीय आयोजन तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसे देखने के लिए दूर-दराज से ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी लोग पहुंचते हैं। इस उत्सव को देखने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक मणिकर्णिका घाट पर जुटते हैं। काशी की गलियों से गुजरते हुए जब लोग इस आयोजन तक पहुंचते हैं, तो वे एक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करते हैं, जो कहीं और देखने को नहीं मिलता।
कला और अध्यात्म का दिखता है संगम
मणिकर्णिका घाट पर होने वाला यह आयोजन कला और अध्यात्म का एक अद्भुत मेल है। जहां आमतौर पर मृत्यु के बाद शोक का वातावरण होता है, वहीं काशी में मृत्यु को मोक्ष का द्वार माना जाता है। इसी सोच को दर्शाते हुए यह उत्सव सदियों से मनाया जा रहा है।
यहां का माहौल ऐसा होता है कि जब चिताओं की रोशनी में नगरवधुएं अपने नृत्य से काशी के रक्षक भगवान शिव को रिझाने का प्रयास करती हैं, तब संपूर्ण वातावरण अध्यात्म और भक्ति से भर जाता है।
अनोखा उत्सव, जो काशी को विशेष बनाता है
इस आयोजन का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से भी काफी बड़ा है। यह एक ऐसा आयोजन है, जहां जीवन और मृत्यु के बीच की दूरी मिटती नजर आती है।