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काशी में गंगा घाट की सीढ़ियों पर विराजमान हैं भगवान वेंकटेश बाला जी: पेशवा शासनकाल में रंगमहल था मंदिर, 1857 में सिंधिया परिवार ने खरीदा, बिस्मिल्लाह खान से भी जुड़ा है इतिहास
गंगा का किनारा, पंचगंगा घाट की सीढियां, मंगला गौरी मंदिर, उसी के निकट पूजन करते भक्तगणों की टोली से बिना ढोल मंजीरा के बीच ऐसी लय, ‘जय तिरुपति बालाजी, जय तिरुपति बालाजी, जय जय वेंकट स्वामी, तुम हो अंतर्यामी, जय श्री नाथ हरी, जय तिरुपति बालाजी...
जिसे सुन अनायास ही मन उस ओर खींचा चला जा रहा था। पास जाकर देखा, तो भक्तों की टोली प्रात: भगवान बाला जी की स्तुति कर रही थी। जिस लय में वे भगवान का भजन कर रहे थे, ये उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। बात करने पर पता चला कि सीढ़ियों के ऊपर भगवान वेंकटेश बाला जी विराजित हैं। भीतर जाकर भगवान के दर्शनों की इच्छा जागृत हुई। बाहर से खंडहर जैसे दिखने वाले मंदिर में जब अंदर जाकर देखा, तो जैसे लगा कि साक्षात् भगवान वहां विराजमान होकर दर्शन दे रहे हों। भगवान के चेहरे से इतना तेज उत्पन्न हो रहा था कि प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा हो गई हो, या फिर प्रतिमा के जगह पर भगवान साक्षात् विराजित हो गए हों।
खैर, हम तो ठहरे बनारस वाले, लेकिन इस मंदिर से अब तक अनभिज्ञ थे। मंदिर के बारे में और जानने की इच्छा हुई। इसकी स्थापना, इतिहास आदि विषयों पर हमने बात करना चाहा। पहले तो महंत जी ने मना किया, लेकिन बाद में उन्होंने इसके लिए सायंकाल आने को कहा। जिसके बाद हमारी टीम सायंकाल पहुंची, जो रहस्य हमने इस मंदिर के बारे में जाने, उसे सुनकर एकदम अचंभित रह गए।
वाराणसी के पंचगंगा घाट पर वेंकटेश बालाजी का मंदिर स्थापित है। यह मंदिर वाराणसी में स्थित प्रमुख वैष्णव मंदिरों में से एक है। छोटे लेकिन महत्वपूर्ण बाला जी के इस मंदिर की सुंदरता बगल से ही प्रवाहमान माँ गंगा की अविरल धारा से और बढ़ जाती है। इस मंदिर के गर्भगृह को छोड़कर वर्तमान में बाकी का हिस्सा निर्माणाधीन है। मंदिर के इतिहास के बारे में मंदिर के महंत वासुदेव गोकर्ण ने बताया कि वर्तमान मंदिर का पूरा परिसर कभी रंगमहल हुआ करता था। यहां नृत्य और संगीत की तर्ज पर महफ़िल सजती थी। पेशवाओं के शासनकाल से यह परंपरा जीवंत थी। 1857 के गदर में इस मंदिर और प्राचीन मूर्ति को ब्रिटिश हुकुमत ने नीलाम करा दिया था। जिसे बनारस के सिंधिया परिवार ने खरीद लिया।
ब्राहमण को नदी में स्नान करते मिली थी प्रतिमा
मंदिर के भीतर प्रतिमा की बात की जाय, तो यह प्रतिमा एक ब्राहमण को गंगा जी में स्नान करते समय नदी में ही मिली थी। ब्राहमण ने उस मूर्ति को मंगला गौरी के सामने बड़े पीपल के पेड़ के नीचे रख दिया। जिसके बाद तत्कालीन काशी नरेश जयाजी राव को स्वप्न में भगवान ने दर्शन दिए और मंदिर की स्थापना वर्तमान जगह पर करने का निर्देश दिया। राजा ने उस प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा घाट किनारे कराई। तब से भगवान अपने स्थान पर सदियों से विराजमान हैं। मंदिर में भगवान के साथ उनकी पत्नियां श्रीदेवी और भूदेवी भी विराजमान हैं।
खंडहर जैसा दिखने के सवाल पर महंत ने आगे बताया कि मंदिर काफी प्राचीन है। समय-समय पर आए भूकंप के कारण इसके कुछ हिस्से जर्जर होकर गिरते रहे, लेकिन भगवान की पूजा अर्चना तब भी जारी रही। वर्ष 2012 तत्कालीन सरकार और प्रशासन के आदेश पर इसका जीर्णोद्धार कराया गया।
मंदिर का महत्व
बाला जी के दर्शन-पूजन के माहात्म्य के बारे में बताया जाता है कि इनके दर्शन से व्यक्ति के सभी पाप कट जाते हैं और धन सम्पदा की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में शारदीय नवरात्र में वृहद स्तर पर कार्यक्रम का आयोजन होता है। इस दौरान नौ दिनों तक बाला जी का अलग-अलग तरीके से श्रृंगार होता है। जिनके दर्शन के लिए काफ़ी संख्या में दर्शनार्थी मंदिर में पहुंचते हैं। वहीं, कार्तिक पूर्णिमा के दिन इनका विषेश रूप से मक्खन से श्रृंगार किया जाता है। यह अनूठा श्रृंगार बालाजी मंदिर का प्रतीक बन गया है।
कपाट खुलने का समय
बालाजी मंदिर आम दर्शनार्थियों के लिए सुबह 6 बजे से 10 बजे तक एवं सायं साढ़े 5 बजे से साढ़े 7 बजे तक खुला रहता है। मंदिर में सुबह की आरती साढ़े 6 बजे एवं शयन आरती सायं 7 बजे होती है।
बिस्मिल्लाह खान को बनाया ‘उस्ताद’
काशी के प्रमुख रत्नों में से एक बिस्मिल्लाह खान को ‘उस्ताद’ बनाने में इस मंदिर का काफी योगदान रहा है। बिस्मिल्लाह खान अक्सर गंगा घाट किनारे स्थित बालाजी मंदिर में सूर्योदय के पहले ही शहनाई वादन का रियाज किया करते थे। वे गंगा से बालाजी मंदिर तक की 508 सीढियां चढ़ कर ऊपर जाते और मंदिर प्रांगण में बैठकर रियाज करते। संगीत का अभ्यास करते समय उनके लिए बाहरी दुनिया का कोई अस्तित्व खत्म हो जाया करता था। वह संगीत में इतना डूब जाते कि उनके लिए संगीत ईश्वर से मिलन का एक माध्यम बन जाता करता।
बिस्मिल्लाह खान को हनुमान जी ने साक्षात् दिए दर्शन
बिस्मिल्लाह ख़ाँ एक आम शहनाई वादक से कैसे बने शहनाई के सरताज। इस बारे में एक बार एक अन्तरराष्ट्रीय प्रेस को इंटरव्यू देते हुए उन्होंने बताया था कि किस तरह उन्हें रियाज के दौरान बालाजी मंदिर में हनुमानजी के दर्शन हुए थे। उनके अनुसार जब वे दस-बारह साल के थे। वो उस समय बनारस के एक पुराने बालाजी मंदिर में रियाज के लिए जाते थे। बिस्मिल्लाह खान के शब्दों में, एक दिन बहुत सुबह वह पूरी तरह तल्लीन होकर पूरे मूड में मंदिर में शहनाई बजा रहे थे। हमने दरवाजा बंद किया हुआ था जहाँ हम रियाज कर रहे थे। हमें फिर बहुत जोर की एक अनोखी खुशबू आई। देखते क्या हैं कि हमारे सामने बाबा हनुमान यानि बाला जी खड़े हुए हैं और वह हाथ में कमंडल लिए हुए। मुझसे कहने लगे 'बजा बेटा' मेरा तो हाथ कांपने लगा, मैं डर गया, मैं बजा ही नहीं सका, अचानक वो जोर से हंसने लगे और बोले मजा करेगा, मजा करेगा और वो ये कहते हुए गायब हो गए।
बिस्मिल्लाह साहब ने अपने मामा को बताई थी सारी बात
इतनी सी उम्र में साक्षात हनुमान जी के दर्शन से बिस्मिल्लाह बदहवास से हो गए। वह तुरन्त अपने घर पहुंचे और उन्होंने जब अपने मामू को ये बात बताई तो वह मुस्कुरा दिए। उनके मामा ने उन्हें कहा कि ये बात किसी को नहीं बताना, जब बिस्मिल्लाह जबरन बताने पर अड़े रहे तो उनके मामा ने उन्हें जोर से तमाचा मार दिया और दोबारा किसी को ऐसी बातें नहीं बताने की ताकीद की।
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वह हनुमान जी थे, उन्होंने तुम्हारे रियाज से खुश होकर तुम्हें आशीष दिया है। इस घटना के बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया। मामा के तमाचे के बाद उन्होंने यह बात पुरी उम्र अपने दिल में ही रखी। अपने देहांत से कुछ सालों पहले ही उन्होंने यह राज खोलते हुए कहा था कि अपनी जिंदगी में आज जो कुछ भी हूं, बालाजी की कृपा से ही हूं।